सोचा था
चलेंगे उम्र भर
नदी के दो किनारों की तरह
हर कदम साथ साथ
निकले हिम की गोद से
श्वेत फेन पर
सतरंगी सपने सजाये
कुछ दूर ही चले थे
कि बिछड़ी वो सखियाँ
वो चंचल तरंगे
नयी भी मिली
उछाह से भरकर
पर खो गयी
भीड़ का हिस्सा होकर
साथी जो मजबूत थे
पत्थरों की तरह
तेज थी धार जिनकी
समय की सान पर
घिस गए
कुछ इस तरह
कि
धार भोंथरी हुई
या फिर
चिकना बना लिया खुद को
बहते जाने के लिए
पर
बहते भी कब तक
बहाव शिथिल हुआ
तो
रुक गए वे भी
गलत थे हम
जो किनारों के
चलने की बात करते थे
वास्तव में
किनारे कहीं नहीं जाते
बहती है
सिर्फ नदी!
गंतव्य है उसका
वो
अनंत अथाह सागर
खारा है
मगर अपना है
जीवन का हेतु
वो नवजीवन के सेतु !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Saturday, July 10, 2010
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bahut bahut umda rachna......
ReplyDeleteवास्तव में
किनारे कहीं नहीं जाते
बहती है
सिर्फ नदी!
गंतव्य है उसका
वो
अनंत अथाह सागर
खारा है
मगर अपना है
prabhaavit kiya aapki lekhni ne..
jai ho !