Saturday, July 10, 2010

नवजीवन का सेतु

सोचा था
चलेंगे उम्र भर
नदी के दो किनारों की तरह
हर कदम साथ साथ
निकले हिम की गोद से
श्वेत फेन पर
सतरंगी सपने सजाये
कुछ दूर ही चले थे
कि बिछड़ी वो सखियाँ
वो चंचल तरंगे
नयी भी मिली
उछाह से भरकर
पर खो गयी
भीड़ का हिस्सा होकर
साथी जो मजबूत थे
पत्थरों की तरह
तेज थी धार जिनकी
समय की सान पर
घिस गए
कुछ इस तरह
कि
धार भोंथरी हुई
या फिर
चिकना बना लिया खुद को
बहते जाने के लिए
पर
बहते भी कब तक
बहाव शिथिल हुआ
तो
रुक गए वे भी
गलत थे हम
जो किनारों के
चलने की बात करते थे
वास्तव में
किनारे कहीं नहीं जाते
बहती है
सिर्फ नदी!
गंतव्य है उसका
वो
अनंत अथाह सागर
खारा है
मगर अपना है
जीवन का हेतु
वो नवजीवन के सेतु !

1 comment:

  1. bahut bahut umda rachna......

    वास्तव में
    किनारे कहीं नहीं जाते
    बहती है
    सिर्फ नदी!
    गंतव्य है उसका
    वो
    अनंत अथाह सागर
    खारा है
    मगर अपना है

    prabhaavit kiya aapki lekhni ne..

    jai ho !

    ReplyDelete

आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

Followers

कॉपी राईट

इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं