Wednesday, February 5, 2014

सदका माँगे या खिराज....

कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज
डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज

तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज

ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप
कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज
  
जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ
वो ही काँधे को झुकाए बन के रह जाते मिराज

हम भला बढ़ते ही कैसे आड़े आती है ये सोच  
"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज"

खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज

पंछियों के खेल या फिर तितलियों का बाँकपन
मौज से गर देख पाऊं सुधरे शायद ये मिज़ाज  



तरही मिसरा "माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज" आदरणीय शायर अल्लामा इक़बाल साहब की ग़ज़ल से है |

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