वैवाहिक सुख का अल्प योग था | दो संतान - एक बेटा और एक बेटी गोद में डालकर विधाता शायद भुआ का सुख चिंतन भूल ही गया था |
पति की मृत्यु के बाद माता-पिता भुआ को अपने साथ अपने घर वापस ले आये | सोचा होगा कि एक दिन दोहिता बड़ा होकर नाना की जमीन संभाल लेगा | जमीन भी पर्याप्त थी जीवनयापन के लिए । लेकिन ऊपर वाले का लिखा कब कोई बांच पाया है | कुछ समय ही बीता था कि माँ बाप भी एक-एक कर साथ छोड़ गए । स्वभावत: भोली भुआ के हाथों से जमीन कब रिश्तेदारों के हाथों पहुँच गयी समझ ही नहीं आया | जैसे-तैसे बच्चों को बड़ा किया बिटिया को ब्याह कर ससुराल भेजा | बेटा बढईगिरी का काम करने लगा था | अचानक बेटा मानसिक उत्तेजना का शिकार होने लगा | बहुत कम समय ही वह सामान्य रहता | कभी-कभार कुछ पटड़ी , रई (बिलोवनी)जैसी चीजें बना देता है और भुआ उन्हें बेच आती हैं । थोडा सा सहारा विधवा पेंशन का है|
इस गरीबी के बीच भी भोली भुआ का स्वाभिमान एक जिन्दा संकल्प है या कहूँ कि जीवन के मूल्य सिखाता पाठ है | कभी किसी से कोई सहायता स्वीकार नहीं -
तुम ब्राह्मण हो तुमसे कैसे ले लूँ ?
तुम बेटी हो बेटियों से कौन लेता है ?
बिन अवसर भी अन्य किसी से भी नहीं हाँ किसी शुभ अवसर पर बहन बेटी के नाम से भले ही विदाई स्वीकार कर ले |
यदि घर में खाने को कुछ न हो तो 10-20 रूपये उधार भले ही ले ले पर उन्हें भी तुरंत पेंशन मिलते ही चुकाने चली आएँगी | कितना भी आग्रह करो पर अनावश्यक किसी का एक रुपया भी नहीं रखती | कोई गरीब समझ कर कपडे देना चाहे तो भी “किस बात के !!!” कहकर हाथ जोड़ कर चल देंगी | यदि कोई कहे कि अपनी बेटी को दे देना तो कहेंगी कि जैसा मेरे पास होगा ले जायेगी |
और जानते हैं मुझे जिस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया वो क्या है –
भुआ अक्सर मंदिर जाती हैं पर पल्लू में रुपया न हो चढाने के लिए तो मंदिर से चन्दन का टीका भी ग्रहण नहीं करतीं | हाथ जोड़कर कहेंगी आज तो कुछ नहीं था चढाने को टीका कैसे लगा लूँ ?
उन्हें देख कानों में जगजीत सिंह जी का भजन गूंजने लगता है –
तुम ढूंढो मुझे गोपाल मैं खोई गैया तेरी
सुध लो मोरी गोपाल मैं खोई गैया तेरी