Tuesday, April 29, 2025

मैं व्याकुल गैया तेरी ....


वैवाहिक सुख का अल्प योग था | दो संतान - एक बेटा और एक बेटी गोद में डालकर विधाता शायद भुआ का सुख चिंतन भूल ही गया था | 

पति की मृत्यु के बाद माता-पिता भुआ को अपने साथ अपने घर वापस ले आये | सोचा होगा कि एक दिन दोहिता बड़ा होकर नाना की जमीन संभाल लेगा | जमीन भी पर्याप्त थी जीवनयापन के लिए । लेकिन ऊपर वाले का लिखा कब कोई बांच पाया है | कुछ समय ही बीता था कि माँ बाप भी एक-एक कर साथ छोड़ गए । स्वभावत: भोली भुआ के हाथों से जमीन कब रिश्तेदारों के हाथों पहुँच गयी समझ ही नहीं आया | जैसे-तैसे बच्चों को बड़ा किया बिटिया को ब्याह कर ससुराल भेजा | बेटा बढईगिरी का काम करने लगा था | अचानक बेटा मानसिक उत्तेजना का शिकार होने लगा | बहुत कम समय ही वह सामान्य रहता | कभी-कभार कुछ पटड़ी , रई (बिलोवनी)जैसी चीजें बना देता है और भुआ उन्हें बेच आती हैं  । थोडा सा सहारा विधवा पेंशन का है|

इस गरीबी के बीच भी भोली भुआ का स्वाभिमान एक जिन्दा संकल्प है या कहूँ कि जीवन के मूल्य सिखाता पाठ है | कभी किसी से कोई सहायता स्वीकार नहीं -

तुम ब्राह्मण हो तुमसे कैसे ले लूँ ?

तुम बेटी हो बेटियों से कौन लेता है ?

 बिन अवसर भी अन्य किसी से भी नहीं हाँ किसी शुभ अवसर पर बहन बेटी के नाम से भले ही विदाई स्वीकार कर ले |

यदि घर में खाने को कुछ न हो तो 10-20 रूपये उधार भले ही ले ले पर उन्हें भी तुरंत पेंशन मिलते ही चुकाने चली आएँगी | कितना भी आग्रह करो पर अनावश्यक किसी का एक रुपया भी नहीं रखती | कोई गरीब समझ कर कपडे देना चाहे तो भी “किस बात के !!!” कहकर हाथ जोड़ कर चल देंगी | यदि कोई कहे कि अपनी बेटी को दे देना तो कहेंगी कि जैसा मेरे पास होगा ले जायेगी |

और जानते हैं मुझे जिस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया वो क्या है –

भुआ अक्सर मंदिर जाती हैं पर पल्लू में रुपया न हो चढाने के लिए तो मंदिर से चन्दन का टीका भी ग्रहण नहीं करतीं | हाथ जोड़कर कहेंगी आज तो कुछ नहीं था चढाने को टीका कैसे लगा लूँ ?

उन्हें देख कानों में जगजीत सिंह जी का भजन गूंजने लगता है –

तुम ढूंढो मुझे गोपाल मैं खोई गैया तेरी

सुध लो मोरी गोपाल मैं खोई गैया तेरी

Monday, May 9, 2022

ग़ज़ल

 

बिना शर्त अनुबंध है इक दुआ मां

तेरा हाथ सिर पर है मेरी दवा मां

झुलसती दुपहरी में राहत दिलाती

फुहारों सी बरसे निराली घटा मां

गमों को छुपाए उठा बोझ अनगिन 

भरी धूप में गुनगुनाती सबा मां

पड़े पांव छाले या कांटे हों मग में

कठिन राहों में मुस्कुराती सदा मां

वो त्योहार हर दिन वो मनुहार हर पल

तेरे बिन है छूटा कहीं सिलसिला मां

सितारों से आगे कहीं ठांव तेरा

पहुंच मेरी सीमित कहां रास्ता मां

अकेली तुझे छोड़ की भूल ऐसी

कि जिन्दा हूं पर जिंदगी है सज़ा मां

 

(आपके जन्म दिवस पर शब्द पुष्पांजलि मां)

Sunday, February 20, 2022

हर चुप्पी तो....

 बेशक

आसमां ने मौन रहकर

 दी है सहमति मेरे सपनों को 

और धरती ..

हां उसने भी 

चुप साध ली है

न वो दर्द बयां करती है

न मैंने समझने की

 कोशिश ही की

उसकी चुप्पी भी

सहमति में ही गिनी मैंने

पेड़ की चुप्पियों से

आरियों की धार

तेज होती रही

झुकी डालियों ने

लुटा दी 

समस्त संपदा अपनी

उनका मौन भी 

सहमति में शुमार हुआ 

पर हर चुप्पी तो 

सहमति नहीं होती !!

-वंदना

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