Friday, June 21, 2013

चिंतन

प्रकृति का वह स्वरूप जो भारत के उत्तरी प्रदेश में देखने को मिला वाकई भयावह है आत्मा को झकझोर गया सम्पूर्ण मंजर साथ ही याद आई प्रसाद जी की कामायनी शतपथ ब्राह्मण पर आधारित महाकाव्य की ये  पंक्तियां –

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था ऊपर हिम था एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन
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निकल रही थी मर्म वेदना करुणाविकल कहानी सी वहां अकेली प्रकृति सुन रही हँसतीसी पहचानी सी
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उनको देख कौन रोया यों अन्तरिक्ष में बैठ अधीर
वयस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रलय हलाहल नीर
हाहाकार हुआ क्रंदनमय  कठिन कुलिश होते थे चूर
हुए दिगंत बधिर भीषण रव बार बार होता था क्रूर
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भारतीय दर्शन ने मनुष्य को सदैव संतुलित जीवन जीने का सन्देश दिया है लेकिन हम दर्शन को छोड़कर दूरदर्शन के पीछे भाग रहे हैं जो निरंतर विलासिता के पीछे पागल होने पर जोर दे रहा है
टी.वी पर उत्तराखंड के दृश्य दिखाते समय बार बार प्रकृति से किये जा रहे खिलवाड़ की बात दोहराई जा रही थी टिहरी बाँध पर सवाल उठाये जा रहे थे लेकिन सोचिये कि टिहरी बाँध की जरूरत क्यों पड़ी ?सभी जानते हैं कि नदियों पर बाँध सिंचाई अथवा ऊर्जा उत्पादन के लिए बनाये जाते हैं. सिंचाई के अभाव में अन्न उत्पादन कैसे हो? निरंतर बढती जनसँख्या को अन्न उपलब्ध करवाने का अन्य उपाय क्या है? रही बात ऊर्जा उत्पादन की तो कुछ घंटे बिजली के अभाव में हमारी क्या हालत हो जाती है यह किसी से छिपा नहीं है ऑफिस घर बाज़ार सभी जगह बढ़ते बिजली उपकरण निरंतर ऊर्जा की मांग करते हैं और ऊर्जा प्राप्ति का जरिया है प्रकृति एकमात्र प्रकृति

टी.वी. पर शोर मचा रहे इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इनके पास ऊर्जा के क्या स्रोत हैं कैसे ये 24*7 अपने कार्यक्रमों को प्रसारित कर पाते हैं क्या इनके पास कोई निजी संसाधन हैं ऊर्जा प्राप्ति के ?यदि नहीं तो जरा आकलन करके बताइये कि सारे दिन में वास्तव में कितने आवश्यक एवं उपयोगी कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं और कुल कितनी ऊर्जा इसमें खर्च होती है

कहने को तो आप कहते कि इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं फलां फलां विज्ञापन लेकिन वास्तव में विज्ञापनों को इन कार्यक्रमों एवं समाचारों के द्वारा प्रायोजित किया जाता है

ऊर्जा केवल टी.वी. प्रसारण में ही खर्च नहीं होती कार्यक्रमों को तैयार करने से लेकर दर्शकों के देखने के लिए काम आ रहे उपकरणों तक करोड़ों यूनिट बिजली प्रयोग में आती है एक समाचार का विस्तार देखने के लिए हम घंटों टी.वी. पर नजरें गडाए रहते हैं और विस्तार के बजाय हाथ आती हैं वे क्लिपिंग्स जिन्हें घिस जाने की हद तक बार बार प्रसारित किया जाता है

क्या बुराई थी कि हम आकाशवाणी पर 15 मिनट के समाचार सुन कर जानकारी हासिल कर लेते थे और अब घंटों बैठकर भी उतनी जानकारी नहीं जुटा  पाते आकाशवाणी पर सरकारी तोता होने का इल्जाम था और अब हम देसी विदेशी रंगीन तोतों की टांय टांय सुनने को विवश हैं

अगर वास्तव में प्रकृति की चिंता है तो महात्मा गाँधी जी की इस उक्ति को ध्यान में रखना होगा –

Earth provides enough to satisfy every man’s need but not every man’s greed .

तो आइये बंद करें बिना जरूरत चल रहे पंखे कूलर ,ऊंघते कम्प्यूटर और अलसाई लाइटें  जहाँ तक हो सके ऊर्जा  बचाएं . थोड़ी सहन शक्ति बढ़ाएं और उस गर्मी को सहन करने के बारे में सोचें जिसे हम बिना ac कूलर बर्दाश्त नहीं कर पाते पर सैकड़ों लोग उसी तपती गर्मी में आजीविका के लिए पूरा दिन खड़े रहते हैं

बड़ी लालसा यहाँ सुयश की
अपराधों की स्वीकृति बनती
अंध प्रेरणा से परिचालित
कर्ता में करते निज गिनती

तो.... या तो हम प्रकृति के दोस्त बन जाएँ या प्रकृति का तांडव देखने को तैयार रहें

प्रकृति रही दुर्जेय पराजित
हम सब थे भूले मद में
भोले थे हाँ तिरते केवल
सब विलासिता के नद में 
 





Monday, June 17, 2013

कुछ तो सोचें ....

आज सुबह की सैर के वक़्त एक कम उम्र महिला को नाइटी में घूमते देखा हल्के अँधेरे को देखते हुए कुछ लोग इस बात की परवाह नहीं करते कि क्या पहन कर घूमने निकल रहे हैं इसलिए कभी कभी कुछ महिलाओं को इसी तरह नाइटी में देखते ही हैं तो आज अनोखा क्या हुआ ?
एक तो उजाला हो चुका था और दूसरा नाइटी ऊपर से नीचे तक शरीर से चिपकी हुई थी जो बहुत अजीब लग रही थी सोचने पर मजबूर हो गए कि क्यूँ अन्धानुकरण की दौड़ में हम हाँफने की हद तक पहुँच रहे हैं
राजस्थानी समाज में लहंगे के साथ कुर्ती का चलन रहा है सच मानिए बेहद आरामदायक परिधान है और बहुत खूबसूरत भी झीनी सी चुन्नी के घूंघट में उन महिलाओं की नफासत देखते ही बनती है अब आप सोचेंगे कि मैं घूँघट की हिमायत कर रही हूँ  नहीं कतई नहीं मैनें सिर्फ खूबसूरती की वकालत की है

किसी भी परिधान को अपनाने में सुविधा और सौन्दर्य दोनों का ही ध्यान रखा जाना चाहिए लेकिन यहाँ इस महिला का दृष्टिकोण समझ के परे था आते जाते सभी पुरुष ही नहीं महिलायें भी उसे पलट पलट कर देख रहे थे शायद कुछ लोग कहें कि यह तो उसकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाली बात है पर ऐसा नहीं है क्योंकि एक विचित्र बात यह थी कि महिला का चेहरा पूरी तरह  घूँघट से ढका था यानि कुल मिलाकर घूँघट उस बंधन का प्रतीक था जो उसके समाज अथवा परिवार ने लाद रखा था और नाइटी शायद उस बंधन से मुक्त होने की  छटपटाहट का प्रतीक !!
अब सवाल यह उठता है कि यह छटपटाहट क्या वाकई कोई मूल्य रखती है ?
ऐसे ही जी टी.वी पर इन दिनों मम्मियों के डांस का प्रोग्राम दिखया जा रहा है जहाँ कला का प्रदर्शन  तो जब होगा तब होगा अभी चयन प्रक्रिया में दिखाई जा रही कुछ महिलाएं (यहाँ मम्मियां कहना भी अजीब लग रहा है ) वाकई अफ़सोस के लायक हैं नृत्य कला के आसपास उनका कोई सम्बन्ध नहीं  नाभि दर्शना वस्त्र और निक्कर या स्किन टाइट पेंट्स पहन कर उछल कूद करती इन महिलाओं का उद्देश्य क्या है यह समझ के बाहर है
इनमें से कुछ महिलाओं का पेट देखकर तो भूसे से ओवरलोडेड ट्रकों की याद आ जाती है यहाँ मेरा उद्देश्य उनके मोटापे का मजाक उड़ाना नहीं है पर प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देना तो जरूरी है न !! कैमरा उन्हें इसी तरह फोकस करता है कि न चाहते हुए ऐसी टिप्पणी करनी पड़ रही है उस पर टी.आर.पी बढ़ाने का नया फंडा यह कि ये महिलायें प्रौढ़ उम्र के दादा से हग करने और किस करने की गुजारिश करती हैं और दादा शरमा कर दिखाते हैं पर क्या शर्माने वाले लोग इस बेहूदगी को एडिट नहीं कर सकते थे
34-26-36 या बार्बी डॉल फिगर जैसे सौन्दर्य को तो भुना चुके अब 40-38-44 को टारगेट बनाकर बाजार को थोपा जा रहा है और महिलायें वो तो सशक्तिकरण का झंडा उठाए अलग अलग स्वरों में कोरस गाने का असफल प्रयास करने में लगी हैं

     

Friday, June 7, 2013

एक कोना आकाश ...


आसमान में इक्का दुक्का बादलो के टुकड़े...मन की शून्यता जैसे इसी कैनवास पर उभर रही थी . अचानक हलकी सी नींद के बाद मन किसी अनजाने भय से चौंक उठता और नींद पलकों से निकल कर भाग खड़ी होती .
दिन में तो रेडियो का सहारा रहता है किन्तु रात के सन्नाटे मन के अंधेरों को और भी गहरा देते हैं . लगता है चारों ओर कैक्टस उग रहे हैं और न जाने कब कोई एक कैक्टस का टुकड़ा दामन से चिपक जाएगा .यह विचारमात्र शरीर के रोम रोम में चुभन उत्पन्न कर देता है .
बचपन में भी सपने आया करते थे पर उनके रंग इतने हलके न थे .... बहुत से रंग हुआ करते थे उनमें ....तरह तरह के चित्र बना करते थे . समुद्र झील पहाड़ पंछी फूल .....हर शै पूरे उल्लास के साथ गा रही होती थी . और सपने ही क्यों जिंदगी भी पहाड़ी झरने की तरह सरगम बिखराती आगे बढती सी लगती थी .
कभी कभी सोचती हूँ क्या माँ बाऊ जी को भी आते होंगे ऐसे सपने जैसे आज मुझे आते हैं .परेशानियां चिंताएं तो तब भी हुआ करती थीं . संयुक्त परिवार और हर नई जिम्मेदारी पहली वाली से बड़ी हुआ करती थी लेकिन कोई भी अपने सपनों से भागता हुआ नहीं लगता था. छोटे-छोटे उन घरों में हरेक सपने का अपना एक कोना होता था और उस कोने का अपना एक आकाश भी खुद चुरा ही लिया करते थे लेकिन आज यह रिक्तता .....
हर त्यौहार पर घर के लिए कुछ न कुछ खरीद ही लेती हूँ कभी फर्नीचर कभी परदे कभी सजावटी सामान किन्तु घर आने के बाद सब बेरंग बेरौनक लगने लगता .
बहुत मेहनत से परिवार के हर सदस्य को उनके सपनों के पीछे चलने का उत्साह दिया था तब कहाँ जानती थी कि कौन किस सपने के पीछे मन्त्रमुग्ध सा ऐसे चल देगा कि वापस लौटने का रास्ता तक ढूँढ पायेगा ..सिर्फ आवाजें सुनाई देंगी . और शायद बरसों बाद तो वो आवाजें भी नहीं .
.. तो रात में ये पुकार जो उन्हें बैचैन कर देती हैं क्या उन्हीं अपनों की हैं ... नहीं ये उनकी नहीं हैं क्योंकि वो लोग तो अब पुकारते ही नहीं . बस बाते करते हैं वो भी फोन पर सहलाने की ...अपनी मजबूरियों की ..डरते हैं वे कि पुकारने पर कहीं पहले की तरह मैं एक साया बनकर खड़ी हो गयी तो  प्यार से अपना हाथ उनके माथे पर फेरने लगी तो ...  न! न! झुर्रियां पड़े ये हाथ अब उतने मजबूत थोड़े ही रह गए हैं जो मात्र एक अंगुली के सहारे दलदल से निकाल घास के मैदानों में तितली पकड़ने के लिए छोड़ आया करते थे
पानी पीकर फिर से सोने की कोशिश करने लगी . अब बताओ निंदिया रानी तुम्हे मनाने के लिए क्या करूँ ...? लोरियां तो अब याद भी नहीं रहीं एक एक कर सब चुक गयीं ..अ... हाँ याद करने की कोशिश भी नहीं करती भला अपने लिए लोरियां गाता भी कौन है और दूसरे किसी को सुनने की फुर्सत भी नहीं रज्जो की बेटी को भी नहीं .
रज्जो .. काम वाली ...उसकी बिटिया तो खुद समय से पहले बड़ी होने लगी है उसे लोरियां नहीं सुनाई देती बस बर्तनों की खटपट सुनती है एक घर से दूसरे घर भागते हुए माँ के आगे या माँ के पीछे .क्या रज्जो सुनाती होगी उसे लोरियां ? नहीं रात को तो वह  अपने शराबी पिता की गालियाँ सुनकर ही सो जाती होगी .
तुझे सपने आते हैं रज्जो ? एक दिन मैंने पूछा था.
सपने ...!! न बीबीजी सपनों का कहाँ टेम है थक कर नींद कब आई और कब उठने का टेम हो गया पता ही नहीं चलता ...
हाँ ऐसा समय तो मेरा भी था तब घर में जगह कम और प्राणी ज्यादा थे .बड़े होने के नाते कमाने की जिम्मेदारी मुझ पर ज्यादा थी .
अब घर में हर साल दीवारें आयल पेंट से सजती हैं तब सफेदी भी कई बरसों में नसीब होती थी दरवाजों पर महँगे परदे नहीं माँ की इक्का दुक्का कम घिसी साडी टंगी होती थी . न होने पर भी किसी को याद नहीं आता था कि परदे की जरूरत भी है . सब आँखों के परदे को ही महत्व देते थे .
बिना नए कपड़ों के भी दीवाली का उल्लास फूटते अनारों से ज्यादा खिलखिलाते चेहरों पर दिखता था अब तो चेहरों पर कब दीवाली आई कब होली गयी पता ही नहीं चलता
हाथ बढ़ाकर लैंप जलाया देखूं तो क्या समय हुआ है ? चलो तीन तो  बज ही चुके हैं डेढ़ दो घंटों में सूरज का उजाला भी फैलने लगेगा  .
सामने दीवार पर एस .एस . हल्दानकर की पेंटिंग लगी है सीधे पल्ले की साडी पहने तन्मयता से दीप जलाती महिला मनोयोग से रौशनी को बुलाती प्रतीत होती है पेंटिंग का नाम है दैविक लौ . कैसे पायी जाती होगी यह दैविक लौ ?
चित्र गूगल से साभार 
कबीर मीरा रैदास ...क्या सबने वास्तव में कर लिया होगा अपनी आत्मा में परमात्मा का साक्षात् ....हाँ तभी तो डूब कर गाया उन्होंने और आज सदियों बाद भी कोई उन गीतों के पास से गुजर जाये तो रसानन्द के छींटे पड़ ही जाते हैं . तदाकार हो पाए तो शायद पावन डुबकी का सुख भी मिल ही जाए , किन्तु अहंकार इस सुख तक पहुँचाने ही कहाँ देता है ? ये अहंकार भी कितना अजीब भाव है ?जब तक दूसरे के पास है जिद या अभिमान कहलाता है और जब मेरे पास हो तो इसे आत्मसम्मान का दर्जा दे दिया जाता है . सचमुच इसके स्वरूप को पहचानना है टेढ़ी खीर . तभी तो आँख बंद करके खुद में झाँकने से डर लगता है .
आँखे बंद कर ही लूँमैंने सोचा .कुछ ही देर में चकवा चकवी के स्वर सुनाई देने लगे .रात के बिछड़े पंछी एक दूसरे को पुकारने लगे हैं .कितना उल्लास है इनके स्वर में ....कितनी चंचलता . सुबह सुबह ये गहरे भूरे रंग के चकवा चकवी और दिन में इक्की दुक्की गौरैया दिख जाते है दूसरे पंछी तो अब कभी-कभी ही दिखाई देते हैं. कहाँ गए होंगें ? पेड़ पौधे तो रहे नहीं . पहले कितने पेड़ थे कॉलोनी में अब तो घरों की बालकोनियाँ ही सड़कों के ऊपर तक छ गयी हैं पेड़ पौधों की जगह तो 8 -10 फुट के लॉन कमरों में बोनसाई के रूप में सिमट कर रह गयी है .
छुटका भी घर का विस्तार तो करना चाहता है पर बजट ने हाथ बाँध रखे हैं मेरे सामने भी प्रस्ताव तो रखा था पर घर के पुराने स्वरूप के मोहवश मैं चुप ही रही .भाभी व बच्चों को यह चुप्पी खली थी वो उन लोगों के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था उनके मूड भी कहाँ तक देखे जाएँ . न तो मैं बच्चों की बुआ थी न भाभी की  ननद  ले देकर छुटके से तुम्हारी बहन कह कर ही संबोधित किया जाता था त्यौहारों पर कहीं बहन को नेग देना होता तो पीछे हाथ बांधकर खड़ी हो जाती तुम्हारी बहन है तुम ही दो. रिश्ता मुझसे कुछ नहीं था लेकिन अगर इनके बच्चे तरक्की नहीं कर रहे तो दोष मेरा होता मैं ही उनके भाग्य की अड़चन ठहराई जाती .
लगता था परिवार की परिभाषा ही बदली है पर एक इकाई तो रह ही जाउंगी .लेकिन रिश्तेदारों ने भी इकाई सा मानने से इनकार कर दिया है तभी तो किसी भी न्यौते के कार्ड पर मेरा जिक्र तक नहीं होता सोचते सोचते खिड़की में आ बैठी थी. जहाँ से बगीचा दिखाई देता है तराशे हुए पौधे हैं जिनकी देखभाल माली करता है फिर भी रंगत नहीं दिखाई देती. बसंत की ऋतु के आने जाने का भी आभास नहीं हो पाता . पता नहीं मन का पतझड़ है या मौसम की चाल बदल गयी है .उस दिन माली को टोक बैठी थी – इन पौधों में देसी खाद लाकर डालो . पर माली से पहले ही छुटका बोल पड़ा – दीदी आप दूसरों के काम में क्यों दखलंदाजी करती हो उसे भी तो अपने काम की नॉलेज होगी
शायद छुटके के कहने का असर तो न होता पर उसके बच्चों को फिस्स से हँसते देख मन खट्टा हो गया था ...माना नई तकनीक के साथ कदम ताल करने की हिम्मत नहीं बची लेकिन आई .क्यू. लेवल तो आज भी नए ज्ञान को अपना सकने का सामर्थ्य रखता है ...दोष बच्चों का है या माता पिता के संस्कारों का .

बगीचे में आज ताजा खिले किसी फूल को तलाशने लगी रात बीत चुकी थी सपना बीत गया था लेकिन मन तनाव से बोझिल था . फिर आँखे मुंदने लगी और एक चित्र तैर गया नवरात्रों के पंडाल ...बेहद खूबसूरत मूर्तियाँ और कलकत्ता के पंडालों में देवी की मूर्तियों के साथ मदर टेरेसा की मूर्ति ....!!! हाँ कर्म से मदर टेरेसा कलकत्ता वासियों की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में माँ के नाम से जानी जाती हैं .
अचानक लगा कि रात के प्रश्न हल हो रहें हैं सपनों को दिशा मिल रही है और अब जागती आँखों से देख रही हूँ एक आश्रम का सपना जहाँ मेरी तरह कुछ पेंशन प्राप्त व्यक्ति अनाथ और असहाय लोगों के कल्याण के लिए योगदान देंगे . दैहिक और दैविक परिवार से इतर एक दुनिया  और  सपनों के आकाश का एक अपना कोना....  

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