Tuesday, October 13, 2015

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।
 नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:

जिस माटी से चूल्हा बनाती है उसी से गण नायक रचती है ...... 

कक्षा 5 की छात्रा द्वारा बिना किसी ट्रेनिंग के खूबसूरत प्रतिमा का सृजन

Friday, May 15, 2015

न डर तू सलोनी....




बहुत तेज है धूप संसार की
सुलभ छाँव तेरे लिए प्यार की
उदासी मिटा वेदना मैं हरूँ
अरी लाडली तू बता क्या करूँ

व्यथा पीर आये सताए मुझे
मगर आँच छूने न पाए तुझे
न डर तू सलोनी कि मैं साथ हूँ
धरे आज काँधे सबल हाथ हूँ

सुना था कि कहते तुझे सब सदय
धरा जब हिली तो न कांपा हृदय
बता लेख कैसे विधाता लिखा
कहीं क्रूर कुछ भी न तुझको दिखा

सरलमन बहन तू सरस काव्य है
मधुरतम प्रियंकर व स्तुत भाव्य है
बड़ा तो नहीं मैं मगर  भ्रातृ हूँ
सुरक्षा वचन से बँधा कर्तृ हूँ 

              -वंदना 






चित्र गूगल से साभार 
इस चित्र पर कविता आयोजन भी नेट से साभार 

Monday, March 30, 2015

दिलों के खेल में......

ग़ज़ल या गीत हो अय्यारियाँ नहीं चलतीं
फ़कत ही लफ्जों की तहदारियाँ नहीं चलतीं

ये सोच कर ही बढ़ाना उधर कदम हमदम
जुनूं की राह में फुलवारियाँ नहीं चलतीं

न काम आये हैं घोड़े न हाथी काम आयेंगे
बिसाते-दहर पे मुख्तारियाँ नहीं चलतीं

कशीदे से लिखी जाती थी प्यारी तहरीरें
घरों में अब तो वो गुलकारियाँ नहीं चलतीं

सफ़र वही रहे आसां कि हमकदम जिनके
चलें तो कूच की तैयारियाँ नहीं चलतीं

रिवाजे-नौ तेरी राहों की आजमाइश में
चलन हो नेक तो दुश्वारियां नहीं चलतीं

मिटा दे फासले अब तो सभी ये तू मैं के
‘दिलों के खेल में खुद्दारियाँ नहीं चलतीं’

तरही मिसरा आदरणीय शायर कैफ भोपाली साहब का



Wednesday, March 25, 2015

माँ का आंगन

बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा
बड़ा समन्दर ऊँची बिल्डिंग भोजन का बढ़िया ढाबा
हाँ ये माना  इस नगरी में सुख सागर लहराता है
किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है


कभी सताऊं कभी मनाऊं  जा पीछे अँखियाँ मींचूँ
ना मुनिया है ना दिदिया ही  चोटी जिनकी मैं खींचूँ
पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां


वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था
बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था
बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा
धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा



ताटंक छंद - रचनाकर्म  के लिए ओबीओ परिवार का विशेष आभार 

चित्र गूगल से साभार 


Friday, March 6, 2015

बासंती खुरचन

रंग पलाशी भीनी पुलकन
चलो चुगें बासंती खुरचन

कुछ फगुनाई कुछ अकुलाई
गालों पर चटकी अरुणाई
झाँक झरोखे से मुस्काई
ओट ओढ़नी की शरमाई
उषा किरण सी प्यारी दुल्हन

गुल गुलाल से अंग महकते
फाग रागिनी सभी बहकते
ढोल बाँसुरी चंग चहकते
बूढ़े बच्चे चलें ठुमकते
मन उपवन सब नंदन नंदन 

मधुर मधुर मिश्री की डलियां
फागुन की अल्हड़ कनबतियां
रागरंग में डूबी सखियाँ
मस्त मस्त हैं मधुकर कलियाँ
आज न आड़े कोई अडचन



Monday, January 26, 2015

फासले भी हैं जरूरी

मीत बनकर ये खड़े हैं शीत पावस घाम
पंक्ति पौधों की सुहानी दृश्य मन अभिराम
धडधडाती रेल गुजरे गूँजता जब शोर
पटरियों की ताल पर हों वृक्ष नृत्य विभोर


पटरियां रहती समांतर क्षितिज की है खोज
सह रही घर्षण निरंतर धारती पर ओज 
दूरगामी पथ सदा वो जो धरे वैराग
फासले भी हैं जरूरी हो भले अनुराग


रूपमाला छंद 

Sunday, January 18, 2015

अच्छे दिन ……


नवकोंपलों के स्वागत में
देह भर उत्साह से उमगते
कण-कण को वासन्तिक बनाने में
हर पल विषपान कर
प्राणवायु उलीचते
कर्तव्य हवन में
स्वयं समिधा बन
जो पाया उसे लौटाते
पात-पात तिनका-तिनका
'इदं न मम' कहकर
आहुति देते  
देव ,ऋषि 
और पितृ ऋण से
मुक्त होना सिखलाते
ये वृक्ष पूछा करते हैं
कि ऋणानुबंधों की 
सुनहरी लिखावट की  
स्याही में डूबे
क्या कभी आया करते हैं
अच्छे दिन !


चित्र गूगल से साभार 



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