Tuesday, October 20, 2020

दीवार पार से

 


आकर्षक कैलेंडर भी दीवारों पर उभरे सीलन के धब्बों को छुपा नहीं पाते |


जब इन्हीं दीवारों के साथ मुझे रहना है तो क्यों इनका बदरंग होना मुझे खलता है ? क्यों बार-बार ऐसा लगता है कि दीवार पार रहने वालों की परछाइयाँ धब्बों के रूप में मुझे सताने चली आती हैं ? उनकी कमियां उनकी खामियां सभी कुछ दीवार पर उभर आते हैं | आखिर उनमें कमियां न होती तो ये दीवार हमारे बीच क्यों होती ?


यह सब सोच ही रही थी कि लगा जैसे दीवार की दरारों से शब्द फिसल रहे हैं और अनुरणन करते हुए कमरे में फ़ैल रहे हैं ,स्वर मेरा नहीं है पर शब्द अक्षरश: वही हैं ..... सीलन ...धब्बे .... खामियाँ .... शायद दीवार पार से ...



Followers

कॉपी राईट

इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं