Sunday, July 29, 2018

ग़ज़ल



हाथों में गुब्बारे थामे शादमां हो जाएँगे।    

खिलखिलाएँगे ये बच्चे तितलियाँ हो जाएँगे

जब तलक जिन्दा जड़ें हैं फुनगियाँ आबाद हैं

वरना रिश्ते रफ्ता-रफ्ता नातवां हो जाएँगे 

रंग सतरंगी समेटे बस जरा सी देर को

हम भी ऐसे बुलबुलों की दास्तां हो जाएँगे

धुन में परवाजों की अपना आशियाँ भूला अगर

‘दूर तुझसे ये जमीन-ओ-आसमां हो जाएँगे’  

आग जुगनू सूर्य दीपक जो हमारा नाम हो

रोशनी सिमटी तो साहब बस धुआं हो जाएँगे

वक़्त की आवाज सुन लो कह रहा बूढा शज़र

छाँव को तरसोगे तुम हम दास्तां हो जाएँगे

पैसों में गर तोलिएगा रिश्तों की मासूमियत

ये यक़ीनन दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां हो जाएँगे



(शादमां- खुश,  नातवां-अशक्त ,   दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां - नफ़ा नुकसान का रजिस्टर )
मिसरा -ए-तरह जनाब वाली आसी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"दूर तुझ से ये ज़मीन-ओ-आसमाँ हो जाएँगे"
2122    2122    2122   212
फाइलातुन   फाइलातुन    फाइलातुन    फाइलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन महजूफ़)

Friday, July 27, 2018

ग़ज़ल-

ग़ज़ल-
हौसलों को परखना बुरा तो नहीं
टिमटिमाता दिया मैं बुझा तो नहीं
बादलों में छुपा चंद्रमा तो नहीं
या कुहासे घिरी इक दुआ तो नहीं
वक़्त की माँग तो है मगर हमसफ़र
रह बदलना मेरी पर रज़ा तो नहीं
जीत है, जश्न है, फ़ख्र का शोर है
बेटियाँ अनसुनी-सी सदा तो नहीं
फेर भी लेती आँखें मगर क्या करूँ
है बदलने की मुझमें कला तो नहीं
मोड़ हैं अनगिनत और कंकर भी हैं
रहगुज़र ये मेरी तयशुदा तो नहीं
हाँ, अज़ानों में है, मौन वंदन में है
दूर हमसे वो नूर-ए-ख़ुदा तो नहीं

Wednesday, July 25, 2018

ग़ज़ल-
सच है किस्मत जो चाल चलती है
लहज़ा अपना कहाँ बदलती है
धूप नवयौवना-सी खिलती है
माथे कुमकुम सजाये चलती है
भोर आई हँसा खिला सूरज
नभ पे तितली कोई मचलती है
ज़िन्दगी अधलिखी इबारत-सी
रूह पढ़ती निखरती चलती है
गूंजे मन में मधुर-सी शहनाई
याद कोई पुरानी छलती है
मौन बाँचे वरक़ वो जीवन के
उम्र की शाम ऐसे ढलती है
सच में गुलशन बहार है या फिर
काग़ज़ी गुलफ़िशां ही छलती है

- वंदना

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