दीये की थरथराती लौ
तेज हवाओं से लडती हुई
जिजीविषा की कथा
मौन रहकर कहती हुई
मौन ही तो सत्य है
जब आज के विज्ञापन युग में
आंधी तूफ़ान
हाशिये से उठकर
मुख्य पृष्ठपर आ गए हैं
और आदमी
अपने अनुपम लाक्षाग्रहों में क़ैद
भावों की उर्वर धरा पर
प्रस्तर वन उगाते हुए
भय शास्त्र की पोथियाँ
बांचते हुए
दिया जलाते डरता है
अंधेरों में सुरंगें खोजता है
उस मकड़ी की तरह
जो उलझकर रह गयी है
अपने ही जाल में
अंततः मर जाने के लिए
वीरगति तो नहीं कहेंगे इसे
फिर क्यों न
हवाओं से उलझे
जलाएं
हाँ जलाएं
एक दिया सा अपने भीतर
और
पलने दे जुगनू सी
आत्मदीप्त उमरिया अपने भीतर !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Thursday, July 1, 2010
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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर