Thursday, July 1, 2010

आत्मदीप्त उमरिया

दीये की थरथराती लौ
तेज हवाओं से लडती हुई
जिजीविषा की कथा
मौन रहकर कहती हुई

मौन ही तो सत्य है
जब आज के विज्ञापन युग में
आंधी तूफ़ान
हाशिये से उठकर
मुख्य पृष्ठपर आ गए हैं
और आदमी
अपने अनुपम लाक्षाग्रहों में क़ैद
भावों की उर्वर धरा पर
प्रस्तर वन उगाते हुए
भय शास्त्र की पोथियाँ
बांचते हुए
दिया जलाते डरता है
अंधेरों में सुरंगें खोजता है

उस मकड़ी की तरह
जो उलझकर रह गयी है
अपने ही जाल में
अंततः मर जाने के लिए

वीरगति तो नहीं कहेंगे इसे
फिर क्यों न
हवाओं से उलझे
जलाएं
हाँ जलाएं
एक दिया सा अपने भीतर
और

पलने दे जुगनू सी
आत्मदीप्त उमरिया अपने भीतर !

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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