Tuesday, May 31, 2011

बचपन

दिखती नहीं चाँद पे बुढिया

लाल परी और सलोनी गुडिया

छिप छिप खाना अमचूर की पुडिया

मोती से दिन रात की लड़ियाँ

बाते करना बैठ मुंडेरी

ले हाथों में मीठी गंडेरी

दिन कटता था पेड़ की डाली

दादी कहती मुझे गिलहरी

खेतों खेतों भागे फिरना

जंगल जंगल बातें करना

धारों में मछली सा तिरना

बनजारों सा घर-घर फिरना

छोटी बातों पर नैन भिगोते

फिर भी घर वाले हमें मनाते

बन बहेलिया जाल बिछाते

चाचा कितनी जुगत भिडाते

हाथ न आती ऐसी चिड़िया

थी बाबा की लाड़ली बिटिया

बादल लाते बरखा की चिठिया

झोली भर गुड धानी मिठिया

कच्चे पक्के अमरूद का जादू

आम पे गाती कोयल कुहू

खोया बचपन ढूँढ रही हूँ

जाने कब से भटक रही हूँ

लौटा दो कागज़ की किश्ती

मिटटी के घरोंदों वाली बस्ती

थी अनमोल नहीं वो सस्ती

बचपन की निश्चिन्त सी मस्ती

Tuesday, May 17, 2011

जिजीविषा हो तुम

धरा हो तुम
धैर्य का प्रतीक
सहती रहो
सूर्य की तपिश
एक संघर्ष
एक चुनौती
कोण बदलकर
स्वीकार तुम करती रहो
हो सकेगा तभी
अंकुरित पल्लवित जीवन
व्यर्थ तो नहीं
तुम्हारे द्वारा सूर्य की परिक्रमा
निरंतर अपनी धुरी पर
बनके तकली घूमना
जिजीविषा हो तुम
जीती रहो
नवीन सूत के तार से
जिंदगी बुनती रहो !

Saturday, May 7, 2011

अर्थ की तलाश में


नदी की तरह
पर्वतों से समंदर तक
एक तयशुदा रास्ता
हर कोई बह लेता है
धारा के साथ
पर टीलों से टीलों तक
नित जगह बदलते
धोरों के बीच
अर्थ की तलाश में
भटकते रह कर
किरकिरे अस्तित्व का
रेगिस्तान हो जाना
मायने रखता है !

Monday, May 2, 2011

उषा - नव सृजन ठुमरी

नेह संजोये नत नैनन री

पहनी धरा ने कनक मुंदरी

लगी गोट किरण लकदक चुनरी

नित नवरूप धरे उषा सुनरी


किरणों संग मुग्धा पैर धरे

मेहँदी छलके मद नैन भरे

मधुकर गुंजित कहीं सैन करे

अब बीते ना कहीं रैन अरे

आ प्रीत भरी तू कुसुम नगरी

तू सृजन अनुबंध मधुर ठुमरी


मन पिया मिलन की पुलक भर के

तैयार है गौरी सज धज के

आँगन बाबुल का चली तज के

नभ रंग जरा सी उमंग भर के

लो फूल हँसे या हँसी तितली

खुल गयी सुबह सतरंग गठरी

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