Saturday, July 27, 2013

पतंगें थाम कर इठला रहा हूँ

हकीकत है कि जो मुस्का रहा हूँ
रफू कर जख्म को सिलता रहा हूँ

हताहत हो के रह जा श्राप मुझको
कि सर दीवार से टकरा रहा हूँ

सभी शामिल रहे उस कारवां में
बिकाऊ भीड़ का हिस्सा रहा हूँ

दबे पांवों चला यादों का मेला
कुसुम राहों में खुद बिखरा रहा हूँ

लगा चुकने न हो अब नेह साथी
नमी आँखों की फिर सहला रहा हूँ

गुलाबों चाँद में दिखता है हर सू
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ

हवाओं पर लगे पहरे भले हों
पतंगें थाम कर इठला रहा हूँ


Monday, July 1, 2013

करिश्मे ग़ज़ल के ......

खयाल था कि दरीचे बदल के देखते हैं
कहाँ हुए गुम रास्ते निकल के देखते हैं

उन्हें सिखाकर चालें हवा हुई गुम थी
मगर आज़ाद परिंदे मचल के देखते हैं

निगाह की जद के ये मेरे हंसीं सपने
इरादतन रंगे धनक ढल के देखते हैं

जुनून है उनका या मुगालता हद है
तमाम रात चिराग जल के देखते हैं

मिसाल हों इन रास्तों कदम तेरे साथी
रवायतन पगपग जो संभल के देखते हैं

न धूप से न गिला छाँव से कोई हमको
लिए नशेमन काँधे टहल के देखते हैं

सुनो ग़ज़ल लिख पायें कि काश आप कहें
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

रवायतें गर राहत न दे सकें हमको
चलो लकीर हम सभी बदल के देखते हैं

करें सियासत जुगनू चराग झिलमिलायें
कहीं सराब कहीं  घात छल के देखते हैं


openbooksonline.com पर तरही मुशायरा के लिए अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़ल की पंक्ति "अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं" 
अ/१/भी/२/कु/१/छौ/२/र/१/क/१/रिश/२/में/२/ग/१/ज़ल/२/के/१/दे/२/ख/१/ते/१/हैं/२
१२१२    ११२२    १२१२    ११२
 मुफाइलुन फइलातुन  मुफाइलुन फइलुन
(बह्र: मुजतस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर )]
 पर मेरी कोशिश


ग़ज़ल के शिल्प से अनजान हूँ सीखने के क्रम में की गयी यह कोशिश है कृपया टिप्पणियों से सुधार की गुंजाइश जरूर बताइये आभार !!! 




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