Friday, August 9, 2019

मां

कैसे कह दूं
कि समय के फ्रेम में
अब नहीं हो तुम
तस्वीरें
जो कैमरे में क़ैद
नहीं हो पाईं
मूल रंगों में
मेरे आस-पास ही रहतीं हैं
घर की देहरी पर
प्रतीक्षा में
मुस्कुराती तुम
मेरी पहली कविता
छपने पर
आंसुओ के
मोती बिखराती तुम
आरती के
थाल के उस पार
दीये की लौ सी
दिपदिपाती तुम
संघर्ष के पलों में
पीठ सहलाती हुई तुम
अनगिनत रूपों में
मेरे पास ही रहती हो मां
समय के हर फ्रेम में
तुम्हीं रहती हो
_वंदना

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इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं