Monday, October 22, 2018

ग़ज़ल



मुस्कुरा कर बुला गया है मुझे
एक बच्चा रिझा गया है मुझे
सांसों में जागी संदली खुशबू
कोई देकर सदा गया है मुझे
दीप बनकर जलूँ निरंतर मैं
जुगनू देकर दुआ गया है मुझे
दुख मेरा दूजों से लगे कमतर
सब्र करना तो आ गया है मुझे
हक में उसके सदा जो रहता था
आइना फिर दिखा गया है मुझे
थी सराबों की असलियत जाहिर
फिर भी क्यूँकर छला गया है मुझे
अब शिकायत हवा से कैसे हो
कोई अपना बुझा गया है मुझे



मिसरा- ए- तरह सब्र करना तो आ गया है मुझे जनाब समर कबीर साहब की ग़ज़ल से 




Sunday, July 29, 2018

ग़ज़ल



हाथों में गुब्बारे थामे शादमां हो जाएँगे।    

खिलखिलाएँगे ये बच्चे तितलियाँ हो जाएँगे

जब तलक जिन्दा जड़ें हैं फुनगियाँ आबाद हैं

वरना रिश्ते रफ्ता-रफ्ता नातवां हो जाएँगे 

रंग सतरंगी समेटे बस जरा सी देर को

हम भी ऐसे बुलबुलों की दास्तां हो जाएँगे

धुन में परवाजों की अपना आशियाँ भूला अगर

‘दूर तुझसे ये जमीन-ओ-आसमां हो जाएँगे’  

आग जुगनू सूर्य दीपक जो हमारा नाम हो

रोशनी सिमटी तो साहब बस धुआं हो जाएँगे

वक़्त की आवाज सुन लो कह रहा बूढा शज़र

छाँव को तरसोगे तुम हम दास्तां हो जाएँगे

पैसों में गर तोलिएगा रिश्तों की मासूमियत

ये यक़ीनन दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां हो जाएँगे



(शादमां- खुश,  नातवां-अशक्त ,   दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां - नफ़ा नुकसान का रजिस्टर )
मिसरा -ए-तरह जनाब वाली आसी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"दूर तुझ से ये ज़मीन-ओ-आसमाँ हो जाएँगे"
2122    2122    2122   212
फाइलातुन   फाइलातुन    फाइलातुन    फाइलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन महजूफ़)

Friday, July 27, 2018

ग़ज़ल-

ग़ज़ल-
हौसलों को परखना बुरा तो नहीं
टिमटिमाता दिया मैं बुझा तो नहीं
बादलों में छुपा चंद्रमा तो नहीं
या कुहासे घिरी इक दुआ तो नहीं
वक़्त की माँग तो है मगर हमसफ़र
रह बदलना मेरी पर रज़ा तो नहीं
जीत है, जश्न है, फ़ख्र का शोर है
बेटियाँ अनसुनी-सी सदा तो नहीं
फेर भी लेती आँखें मगर क्या करूँ
है बदलने की मुझमें कला तो नहीं
मोड़ हैं अनगिनत और कंकर भी हैं
रहगुज़र ये मेरी तयशुदा तो नहीं
हाँ, अज़ानों में है, मौन वंदन में है
दूर हमसे वो नूर-ए-ख़ुदा तो नहीं

Wednesday, July 25, 2018

ग़ज़ल-
सच है किस्मत जो चाल चलती है
लहज़ा अपना कहाँ बदलती है
धूप नवयौवना-सी खिलती है
माथे कुमकुम सजाये चलती है
भोर आई हँसा खिला सूरज
नभ पे तितली कोई मचलती है
ज़िन्दगी अधलिखी इबारत-सी
रूह पढ़ती निखरती चलती है
गूंजे मन में मधुर-सी शहनाई
याद कोई पुरानी छलती है
मौन बाँचे वरक़ वो जीवन के
उम्र की शाम ऐसे ढलती है
सच में गुलशन बहार है या फिर
काग़ज़ी गुलफ़िशां ही छलती है

- वंदना

Sunday, February 25, 2018

हिंदी ग़ज़ल के पथ प्रदर्शक गुलाब जी

1 min
आदरणीय श्री गुलाब खंडेलवाल जी की रचनाओं से मेरे प्रथम परिचय में मेरी स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसे किसी ठेठ ग्रामीण व्यक्ति को अचानक किसी शहर के सुपरमॉल में लाकर खड़ा कर दिया गया हो | अद्भुत निर्वचनीय और विपुल साहित्य सामग्री और उनमें भी मेरी पसंदीदा विधा ग़ज़ल की चार चार पुस्तकें |
मौलिक उद्गारों के सृजक आदरणीय गुलाब जी ने बहुत ही कोमल भावों को अनेक विधाओं में समेटा है | उत्कृष्ट साहित्य लिखने के साथ-साथ गुलाब जी ने हिंदी के आधुनिक स्वरूप में नई-पुरानी विधाओं को इस रूप में प्रस्तुत किया कि पुराने वृक्षों पर नवशाखाओं नवपल्ल्वों ने इठलाना शुरू कर दिया मानों वसंत के आगमन पर बगीचों में गुलाब अपने रस गंध का हर कतरा न्यौछावर कर देना चाहता हो | गुलाब जी स्वयं अपना परिचय इन पंक्तियों के माध्यम से देते हैं कि –
“गंध बनकर हवा में बिखर जाएँ हम
ओस बनकर पंखुरियों से झर जाएँ हम”
यानि जीवन भले ही छोटा हो किन्तु सार्थक हो |
बड़ी ही सादगी से यह मूक साधक अपनी मेहनत को समर्पित करते हैं कि
“तू न देखे हमें बाग़ में भी तो क्या
तेरा आँगन तो खुशियों से भर जाएँ हम”
गुलाब जी ने हिंदी ग़ज़लों का प्रवर्तन सर्वप्रथम 1971 में किया | यद्यपि ग़ज़ल के प्रथम स्वरूप में
हमन है इश्क मस्ताना ,हमन को होशियारी क्या
रहें आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या
कबीर की इस रचना को माना जा रहा है तथापि तकनीकी पक्ष को मान देने वाले इस बात से सहमत नहीं | तकनीकी पक्ष में गुलाब जी की गज़लें बहुत मजबूत स्थिति में हैं |
हिंदी के अनेक रचनाकारों ने ग़ज़ल विधा को अपनाया। जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, त्रिलोचन, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्धि गुलाब जी के समकालीन दुष्यंत कुमार जी को मिली। दोनों रचनाकारों ने एक ही विधा में लिखा लेकिन दोनों के लेखन की गूँज बिलकुल अलग है अत: किसी भी रूप में दोनों की तुलना समीचीन नहीं कही जा सकती |
ग़ज़ल लेखन की विशेषता यह है कि इसके शिल्प में अरबी फ़ारसी से लेकर उर्दू हिंदी तक कोई बदलाव नहीं आया | ग़ज़ल के छंद जिसे बहर कहा जाता है उसे हिंदी की आत्मा तक लीन करने के लिए उसका मूल दर्शन,बिम्ब व प्रतीक योजना का मूल स्वरूप हिंदी लेखन से इतर नहीं हो सकता और गुलाब जी हर कसौटी पर खरे उतरे हैं |यही वज़ह है कि उनकी ग़ज़लों की चार पुस्तकों में से तीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत हुई हैं |
आचार्य विश्वनाथ सिंह उनकी पुस्तक के परिचय में लिखते हैं –
“गुलाब जी ने पहली बार हिंदी को वे ग़ज़लें प्रदान की हैं जो उर्दू की श्रेष्ठतम ग़ज़लों के समकक्ष सगर्व रखी जा सकती हैं| कथ्य की दृष्टि से ग़ज़ल की सुपरिचित भूमि पर रहकर भी कवि ने हिंदी के स्वीकृत सौन्दर्यबोध को कभी धूमिल नहीं होने दिया ....|”
आचार्य विश्वनाथ सिंह के इस कथन पर लेशमात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता |
ग़ज़ल सम्बन्धी गुलाब जी की पहली पुस्तक “सौ गुलाब खिले” की पहली ग़ज़ल का मतला है –
“कुछ हम भी लिख गए हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में”
ग़ज़ल विधा को अपनाते समय पवित्रता बनाए रखे का एक चौकस आग्रह स्पष्टत: दिखाई दे रहा है और यहीं आत्म विश्वास से रखा गया पहला कदम भी इसी ग़ज़ल के मक्ते में दृष्टिगोचर हो रहा है –
“हमने ग़ज़ल का और भी गौरव बढ़ा दिया
रंगत नयी तरह की जो भर दी गुलाब में”
गज़लें कोमल भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के रूप में प्रेम को स्थापित करने का कार्य मूल रूप से करती रही हैं | सौन्दर्य के उद्दीपन से प्रेम की रसधार का अवतरित होना इन गजलों की सफलता का द्योतक है | गुलाब जी की ग़ज़लों में प्रेम का शाश्वत स्वरूप युगबोध से परे है | 70 के दशक में लिखे गए अशआर नित नूतनधर्मा है | संचार क्रांति के आज के युग में भी जब प्रेम एक क्षणिक आवेश भर है यदि प्रेम का अस्तित्व शेष रह जाता है तो गुलाब जी की ये पंक्तियाँ सहज ही दिल की गहराइयों में उतर जाती हैं –
“जान देना तो है आसान बहुत लपटों में
उम्र भर आग में तपना मगर आसान नहीं”
छायावादी युग के कवियों की भांति गुलाब जी द्वारा ग़ज़लों में किया गया प्रेम चित्रण सूक्ष्म और उदात्त है उनका अदृश्य के प्रति अनुराग देखिये कि –
“प्यार ही प्यार है भरा सब ओर
चेतना को निरावरण कर लो”
एक अन्य ग़ज़ल में वे कहते हैं - “ज्योति किसकी है दूर अम्बर में
क्षुद्र अणु में समा रहा है कोई
कोई है दृश्य कोई द्रष्टा है
और पर्दा उठा रहा है कोई”
ईश्वर के प्रति सुदृढ़ आस्था है तभी तो कहते हैं कि
“सब उसी का प्रसाद जीवन में
विष भी आया है तो ग्रहण कर लो”
सम्पूर्ण समर्पण का भाव भी द्रष्टव्य है –
आयेंगे कल नए रंग में फिर गुलाब
आज चरणों में उनके बिखर जाने दो
दूसरी ओर प्रेम का अल्हड शोख अंदाज भी रमणीय प्रतीत होता है –
“यों तो हर बात में आती है हँसी उनको मगर
जो हमें देख के आयी है अभी और ही है”
एक बानगी और
“पिलाने आये वे घूँघट में मुंह छिपाए हुए
सुराही फेर ले बाज आये ऐसे पीने से”
या फिर
“पाँव चितवन के पड़ रहे तिरछे
थोडा सीधा तो बांकपन कर लो”
सचमुच रोमांचित कर देने वाली कल्पना है |
भावों के सम्प्रेषण में गुलाब जी की बिम्ब योजना पानी पर तैरते गुलाब सा कोमल दृश्यानंद और भाव धारा में बहा ले जाने का सामर्थ्य रखती है -
“हुआ है प्यार भी ऐसे ही कभी सांझ ढले
कि जैसे चाँद निकल आये और पता भी न चले”
एक ओर प्रेम का कोमल स्वरूप तो दूसरी ओर संघर्ष से जूझते इंसान का चित्रण देखिये -
“झांझर नैया डाँडे टूटी नागिन लहरें तेज हवा
टिक न सकेगा पाल पुराना मेरे साथी मेरे मीत”
और पद योजना का चमत्कार अद्वितीय है –
“कहे जो हाँ तो नहीं है हाँ भी, नहीं कहे तो नहीं नहीं है
भले ही आँखों से हैं वे ओझल खनक तो पायल की हर कहीं है”
“हँस के बहला भी लिया रूठ के तडपा भी दिया
हम हैं मुहरे तेरी बाजी के हमारा क्या है”
एक साहित्यकार द्वारा सहृदय सामाजिक चित्रण का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता है और परदुःखकातरता कवि का वैशिष्ट्य | गुलाब जी की ग़ज़लों में दोनों की उपस्थिति दृढ़ता के साथ दर्ज होती है |सहज संप्रेषणीयता के साथ साथ मार्मिक संवेदना गुलाब जी की खास विशेषता रही है -
दिये तो हैं रोशनी नहीं है खड़े हैं बुत जिंदगी नहीं है
ये कैसी मंजिल पर आगये हम कि दोस्त हैं दोस्ती नहीं है”
आम आदमी के सपने जो मरते दम तक पूरे न हो पायें उनके लिए बड़ी तड़प के साथ उन्होंने कहा है -
“राख पर अब उनकी लहरायें समंदर भी तो क्या
सो गए जो उम्र भर हसरत लिए बरसात की”
इसी तरह विषम स्थितियों पर जनता की चुप्पी उन्हें बेहद खलती है -
“क्या किससे पूछिए कि जहाँ मुंह सिये हों लोग
है नाम के ही शहर ये वीरान बहुत हैं”
लेकिन गुलाब जी स्वयं दूसरेके दुःख को अपना बनाने का जज्बा रखते हैं -
“मिलेंगे हम जो पुकारेगा दुःख में कोई कभी
हरेक आँख के आंसू में है हमारा पता”
गुलाब जी स्वतंत्रता के हिमायती हैं -
बंधकर रही न डाल से खुशबू गुलाब की
कोयल न कूकती कभी सुर और ताल में
संघर्ष की बात करते गुलाब जी जिजीविषा को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं -
“यों तो राही हैं सभी एक ही मंजिल के गुलाब
तेरा इस भीड़ में खपना मगर आसान नहीं”
परिस्थितियां जो हाथ से निकल जाती हैं उनके बारे में शानदार कहन है –
“डांडे हम खूब चलाते हैं मगर क्या कहिये
नाव दो हाथ ही रहती है भँवर के आगे”
लेकिन संघर्ष में हार कर बैठ जाना उन्हें गवारा नहीं -
“जब्त होता नहीं मांझी अब उठा दो लंगर
नाव को फिर किसी तूफ़ान से टकराने दो”
विशिष्ट व्यक्तित्व होने के लिए विशिष्ट गुण होना आवश्यक हैं -
“सभी के खून की रंगत तो लाल ही है मगर
वो रंग और ही कुछ है कि जो गुलाब बना”
गुलाब जी की ग़ज़लों में प्रतीकात्मकता अपनी विशेषताओं के साथ व्यक्त हुई है | खुद गुलाब की इतनी विशेषताएं उनके संग्रहों में अभिव्यक्त हुई है कि पाठक को आश्चर्य में डाल देती हैं –
“कुछ और होंगी लाल पंखुरियां गुलाब की
काँटों से जिंदगी को सजाने चले हैं हम”
वास्तविकता को स्वीकार कर अपनी गुणवत्ता बनाए रखने की सलाह देते हुए वे कहते हैं -
“जा रहे हैं मुंह फेरकर भौंरे गुलाब
आपकी खुशबू में दम कुछ भी नहीं”
सफलता के लिए मेहनत की जरुरत होती है इस बात को गुलाब को प्रतीक बना कर वे कहते हैं -
“सर पे कांटे भी बड़े शौक से रखते हैं गुलाब
तख़्तपोशी तो बिना ताज नहीं होती है”
शेर दो पंक्तियों में अपनी बात कहने में समर्थ होता है अत: मुहावरा और कथन वक्रता शेर की मुख्य विशेषता होती हैं सम्पूर्ण संग्रह में कथन वक्रता और मुहावरों के चुनाव में व्यक्ति लाचारगी महसूस करता है किसे छोड़े और किसका चयन करे –
“कसो तो ऐसे कि जीवन के तार टूट न जाए
पड़े जो चोट कहीं पर तो रागिनी ढले”
मंजिल से एक कदम पहले अतिउत्साह की वज़ह से मंजिल हाथ से छूट जाती है इस स्थिति के लिए शेर मुलाहिजा फरमाइए -
“डूबी है नाव अपने पांवों की चोट से
हम नाचने लगे थे किनारों को देखकर”
बहुत ही गज़ब के अशआर गजब के कहन के साथ गुलाब जी ने अभिव्यक्त किये हैं -
“हमको तलछट मिला अंत में
वो भी औरों से छीना हुआ”
“अब तो पतझड़ हैं गुलाब
ठाठ पत्तों का झीना हुआ”
मरणधर्मा संसार के प्रति गुलाब जी पूरी तरह जागरूक हैं तो जिंदगी के प्रति सम्मान भी दृढ़ता से निभा रहे हैं –
“फूंक न देना इसे काठ के अंबार के साथ
साज यह हमने बजाया है बड़े प्यार के साथ”
बेशक इस जिंदगी से शिकायत है पर दुबारा भी जिंदगी की ही मांग करते हैं -
“सैंकड़ों छेद हैं इसमें मालिक
अब यह प्याला दूसरा ही देना”
लघुता का बोध भी है तो आत्मविश्वास भी -
“बस कि मेहमान सुबह शाम के हैं
हम मुसाफिर सराय आम के हैं”
“जो सच कहें तो यह कुल सल्तनत हमारी है
पड़े हैं पांवों में तेरे ये खाकसारी है”
अपने स्तर से ही अपना मुकाबला शायद तरक्की का सबसे सही तरीका है -
“खुद ही मंजिल हैं हम अपनी हमको अपनी है तलाश
दूसरी मंजिल पे कोई लाख भटकाए तो क्या”
गुलाब जी का अंदाज वाकई अलहदा है -
“यूँ तो खिलने को नए रोज ही खिलते हैं गुलाब
पर यह अंदाज तो किसी और में पाया न गया”
शब्द चित्रात्मकता का उदाहरण अतुल्य है –
“हवा में घुंघरू से बज रहे थे दिशाएं करवट बदल रही थीं
किरण के घूँघट में मुंह छिपाकर तुम आ रहे थे पता नहीं था”
बहुत ही सादगी से साहित्य सेवा करते हुए आदरणीय गुलाब जी ने अपनी रचनाओं को यह कहकर समर्पित किया –
“खाए ठोकर न हम सा कोई फिर यहाँ
एक दीपक जलाकर तो धर जाएँ हम”
सच है आने वाले समय में भी आदरणीय गुलाब जी की गज़लें सच्चे पथ प्रदर्शक के रूप में नई पीढ़ी को दीपक दिखाकर मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी | इस सच्चे साधक को हमारा सादर नमन |

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