Wednesday, March 21, 2012

आत्मबल इतना ...



देख कर हवाओं की
मुखालफत
पंछियों के पर 
खुलने लगे थे
अनछुई ऊँचाइयों को
छूने का संकल्प
मन की गागर में
आलोड़ित होते होते
बन चुका था 
एक ज्वार
तिनकों के घोंसले
अब परों को ना बाँध पाएँगे
पुकारता है 
सुनहरा रश्मि पुंज
अँधेरों को ठेलते हुए
कर लेनी है मुट्ठी में  
अपने हिस्से की रोशनी
और भर लेनी है डैनों में
इतनी शक्ति
कि कोई ब्लैक होल
निगल न सके 
हौसलों को

और यह
मात्र गर्जना से संभव नहीं
भरनी होगी
स्वार्थहीन
और आडम्बर से रहित
एक उड़ान
बना देना होगा
एक रास्ता
आसमान तक
पीढ़ियों के 
अनुगमन के लिये
चाहिए आत्मबल इतना 
कि
लडखडाएं साँसें
तो 
पथ विचलित न कर दे
लुभावने 
आश्वासनों की
शापित बैसाखी कोई


Monday, March 12, 2012

पहली कविता



वो नन्हीं
निरीह सी चिड़िया
कहीं से अचानक आ गिरी थी          
मेरे हाथों मे
सिमटी बैठी           
रेशमी आवाज लिये
फाल्गुनी रंगों की
कोई गठरी थी
तभी ताजा हवा का कोई झोंका
उसे सहला गया
शक्ति भर फेफड़ों में
तरंगित कर गया
फिर मैनें उसे
आसमानी आतिश की तरह
गगन पटल पर देखा
आँखों में जुगनू भर
रोशनी से
दिया उम्मीद का जला लिया
उस चिड़िया के रूप में
मेरे भावों ने
 क्षितिज को पा लिया
वो चिड़िया
वस्तुतः चिड़िया नहीं
मेरी
पहली कविता थी 

Monday, March 5, 2012

बोलो तुम क्या बाँटोगे






खुशियाँ या फिर गम के मौसम
या स्नेहसिक्त महके सावन
पूछ रहा है फागुन हमसे
बोलो तुम क्या बाँटोगे

साबुन के बुलबुले उड़ाते
नन्हें बच्चों की बातें भोली
छूट गए गुब्बारे जिनसे
उन हाथों की गहन उदासी
पूछ रहा है बचपन हमसे
कैसे चित्र सजाओगे

भरी कचहरी भटके रिश्ते
जेठ दुपहरी शूल सी धूप
स्नेहिल संबंधों में छलके
जैसे बरगद छाँव का रूप
पूछ रहा है आँगन हमसे
किसको तुम अपनाओगे

बँटवारे की डाह जगाती
संदेह भरी कोई उधडन
साँझे चूल्हे सौंधी रोटी
घर कुनबा सिलती सीवन
पूछ रहा है दर्पण हमसे
कैसे महल  बनाओगे 

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