Saturday, November 30, 2013

ग़ज़ल

कोई एक फूल मिसाल का भले ज़िन्दगी को दिया न हो
मेरी हरक़दम रही कोशिशें मुझे रहगुज़र से गिला न हो
                    
तेरी आस में यही सोचती मैं तमाम उम्र जली बुझी
कहीं अक्स तेरी निगाह में मेरी फ़िक्र से ही जुदा न हो

नयी सरगमों नए साज़ पर है धनक धनक जो नफ़ीस पल
इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले के खड़ा न हो

है उरूज़ बस मेरी आरज़ू मेरी गलतियों को सँवार तू           
मेरी साँस यूँ भी कफ़स में है नया दर्द अब ऐ खुदा न हो 
          
जरा देख आँखों की बेबसी वो जो थे जवां ढले बेखबर
अरे उम्र के किसी दौर में उसी दर पे तू भी खड़ा न हो

न बगावतें न रफाक़तें ये सियासतों की हैं चौसरें               
तो झुका लिया यूँ शज़र ने सिर कहीं आँधियों को गिला न हो

ढले शाम जब भी हो आरती दिपे तुलसी छाँव में इक दिया
करें तबसरा भी मकीनों में कोई फ़ासला तो बढ़ा न हो                                                       

****
“इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले के खड़ा न हो”  तरही मिसरा इस दौर के अजीमतरीन शायर जनाब बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल से लिया गया है.


(रहगुज़र = रास्ते जिनसे हम गुजरते हैं ; उरूज़=उत्थान; कफ़स= क़ैद; रफाक़तें= साहचर्य /दोस्ती ; तबसरा=प्रेक्षण /ध्यानपूर्वक देखना; मकीन =घर में रहने वाले  )

Friday, November 15, 2013

ग़ज़ल





ग़ज़ल

मेरे लिए बहार का मौसम रवां है अब
काँधे हवा के रख दिया अपना मकां है अब

परवाज़ नापती परों को तौलती फिरे
पलकों पे लड़कियों के ठहरा आसमां हैअब

खामोश लब झुकीं रहीं नज़रें तेरी सदा
तालीम इक दुआ रही खुद पर गुमां है अब

बिंदास तेवरों की तेरे ताब कुछ अलग
जो बदगुमां हुआ था कभी हमजुबां है अब

उन्वान हम पुराने बदल देंगे जोश है
लिखनी उफ़क पे  हमको नई दास्तां है अब

रक्खे चिराग़ हैं सभी आँचल की ओट में
जाकर हवा से कह दो इरादे अयां है अब

छाले मिले तो हमने सहेजे सजा लिए
वो आसमान देखो खिली कहकशां है अब

नाज़ुक ख़याल थी कभी तितली हसीन थी
जो धूप में तपी तो बनी सायबां है अब

टिकना बुलंदियों पे न आसां हुआ कभी
तौफ़ीक़ जर्फ़ का तू मगर तर्जुमां है अब
                      
                          -वंदना सीकर
( उन्वान- शीर्षक ; अयां-स्पष्ट ; कहकशां- सितारों का समूह /गैलेक्सी ; सायबां -छाया देने वाला; तर्जुमां-अनुवादक; जर्फ़ -हैसियत

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