Sunday, March 30, 2014

ग़ज़ल

जिस्मो जाँ अब अदालती हो क्या

साँस दर साँस पैरवी हो क्या


क्यूँ उदासी का अक्स दिखता है

ये बताओ कि आरसी हो क्या


थरथराते हैं लब जो रह-रहकर

कुछ खरी सी या अनकही हो क्या


रतजगों की कथाएं कहती हो

चांदनी तुम मेरी सखी हो क्या


शाम का रंग क्यूँ ये कहता है

"मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या"


मैं जरा खुल के कोई बात कहूँ

पूछे  हर कोई मानिनी हो क्या


माँ से विरसे में ही मिली हो जो

ए नमी आँखों की वही हो क्या



तरही मिसरा आदरणीय शायर जॉन एलिया साहब की ग़ज़ल से 

" मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या "

Sunday, March 16, 2014

कह मुकरियाँ








1


वो रंगीन मिजाजी भाये

रोम रोम गहरे रम जाये

कहने को तो केवल पाहुन

ए सखि साजन ? न  सखि  फागुन !


2


भेद हृदय के सारे खोले

जादू तो बस सिर चढ़ बोले

करे असर बौराये सर्वांग

का सखि साजन ? न सखि भांग !



Thursday, March 6, 2014

हर नए गम से ख़ुशी होने लगी

चोट जब संजीवनी होने लगी
जिंदगी बहती नदी होने लगी

त्याग कर फिर धारती नवपत्र है
फाग सुरभित मंजरी होने लगी

पल थमा कब ठौर किसके लो चला
रिक्त मेरी अंजली होने लगी

साजिश-ए-बाज़ार है अब चेतिए
तितलियों में बतकही होने लगी

मैं मसीहा तो नहीं हूँ जो कहूँ
"हर नए गम से ख़ुशी होने लगी"

डूबता सूरज भी पूछे अब किसे
शिष्टता क्यूँ मौसमी होने लगी

मन बिंधा घायल हुआ तो क्या हुआ
बाँस थी मैं बाँसुरी होने लगी



 तरही मिसरा मशहूर शायर जनाब सागर होशियारपुरी साहब की ग़ज़ल से 

"हर नए गम से ख़ुशी होने लगी"

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