Thursday, July 8, 2010

पल

आया था अभी अभी और तभी गया है निकल
छूकर पास से अजनबी सा गुजर गया है पल

मासूम मुस्कराहट कभी कभी दर्द की नमी
धड़कन के संगीत पर कुछ तो कह गया है पल

आँचल की कोर में बंधी दुआओं की आस में
माँ की गोदी में बचपन सा ठहर गया है पल

कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा लिए था साथ
आकर तेरे दरवाजे तक पलट गया है पल

नहीं था केवल एक छोटा सा बेक़दर कतरा
समन्दर लिए था हाथ जिससे फिसल गया है पल

5 comments:

  1. पल को खूबसूरती से समेटा है

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  2. फिसलना समन्दर की फ़ितरत है वन्दना जी !

    जल तो जल, समन्दर की रेत तक फिसल फिसल जाती है, लेकिन आपने जिस मनोयोग से अपने भाव शब्दों में उकेर कर उन्हें ग़ज़ल का चेहरा दिया है, वह वाकई फिसला नहीं, सीधा सीधा दिल में उतर गया

    बधाई इस उम्दा सृजन के लिए............
    -अलबेला खत्री

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  3. कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा लिए था साथ
    आकर तेरे दरवाजे तक पलट गया है पल
    नहीं था केवल एक छोटा सा बेक़दर कतरा
    समन्दर लिए था हाथ जिससे फिसल गया है पल

    kya baat hai vandana jee, bahut hee khoob likha hai aapne. padh kar bahut achchha laga

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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