तीव्र गंध की दुनिया में
वो एक रसायन
न पाया
ह्रदय चल पड़ा
स्वरों की अनंत यात्रा पर
मंद्र से तार सप्तक तक
बंदिशों की दुनिया में भी
इच्छित सुर न पाया
कई बार खंगाला छंदों को
अनुभूत मानसिक द्वंद्वों को
कभी तेल जल रंगों में
जीवन के विविध अंगों में
कभी अपनी कभी दूसरों की
नज़र से देखा
कभी धूल कभी फूल
में खोजा
पर डूबने के डर से
सदा किनारे पर डेरा जमाया
इसीलिए ज़िन्दगी में
खुद को
हाशिये पर पाया !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Saturday, July 3, 2010
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वाह्…………॥क्या बात कही है।
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