बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा
हाँ ये माना इस नगरी में सुख
सागर लहराता है
किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है
कभी सताऊं कभी मनाऊं जा पीछे
अँखियाँ मींचूँ
ना मुनिया है ना दिदिया ही
चोटी जिनकी मैं खींचूँ
पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां
वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था
बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था
बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा
धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा
ताटंक छंद - रचनाकर्म के लिए ओबीओ परिवार का विशेष आभार
चित्र गूगल से साभार
कंक्रीट का शहर गांव जैसा कभी नहीं बन सकता ..दुःख तो यह बहुत होता है की लोगों के दिल भी कंक्रीट जैसे दीखते हैं ...मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteअतीत में डुबा रही है आपकी यह कविता.
ReplyDeleteमन को छूते भाव , वाकई एक सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, सार्थक और भावपूर्ण ... हार्दिक बधाई इस छंदमय प्रस्तुति पर...राम नवमी की शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteकभी सताऊं कभी मनाऊं जा पीछे अँखियाँ मींचूँ
ReplyDeleteना मुनिया है ना दिदिया ही चोटी जिनकी मैं खींचूँ
गांव-घर का अत्यंत सुंदर चित्र उकेरा है आपने।
छंद की मोहकता को निंदिया, दिदिया, नगरिया ने द्विगुणित कर दिया है।
पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
ReplyDeleteभुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां..
बहुत ही सुन्दर मन को छूते हुए छंद ... माँ की यादें मन को गुद्गिदाती हैं ... फिर यहाँ तो गैया, मैया और ठैयां .. तीनों ही हैं ...
..मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,मोहक रचना ..हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteबहुत अच्छा है ,,,
ReplyDeleteमै भी कभी स्कूल में लिखा करता था कविता
अब तो ऑफिस से घर - घर से ऑफिस
पर वो चीज़े ,,, बहुत ऑफ्सोस होता है
वाकई में कमाल है
आज भी वो दिन याद आते है जब हम गॉव में रहते थे
amdelherbal.com
पर अब तो सपनो में ही आते है