अब भी झांकती हैं
चश्मे के पीछे से वर्जनाएं
अभिलाषाएं आज भी
क़ैद हैं मुठ्ठियों में
जिन्हें बगल में दबाये
खड़े होते हो तुम
परछाइयों की तरह
कि जब भी चाहता हूँ कोई
लक्ष्मण-रेखा लाँघना
सोचता था हो जाऊँगा बड़ा
इतना कि मेरा बेटा
नहीं ताकेगा पडोसी की
लाल साईकिल
भरा रहेगा फ्रिज
चाकलेट टॉफी से
व कमरा उन खिलौनों से
जिन्हें हम देखा करते थे दूर से
कमरा आज वाकई भरा है
खिलौनों से
जहाँ तुम्हारा लाडला पोता
बैठा है रूठा हुआ
कि दिलवाया नहीं प्ले-स्टेशन
और ना ही देता हूँ उसे
स्कूटर चलाने की इजाजत
क्योंकि महज सातवीं में है वो
और कमरे की दहलीज पर
अपनी ऊष्मा से
बर्फ पिघलाते हुए तुम
उसे सहलाते समझाते
दे रहे हो सांत्वना मुझे
कि कामनाओं के असीम आकाश से
अनुकूल सितारे चुन लेना ही
होता है
बड़ा काम
भावपूर्ण
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
सुन्दर भावपूर्ण रचना.....बधाई वंदना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और आशा लिए रचना के भाव ... अपने सितारे स्वयं चुनने होते हैं विस्तृत आकाश से ...
ReplyDeletesundar kuchh alag si lagi prastuti .....
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...मन को भाती, मर्म को छूती रचना
ReplyDeleteकविता का अंत बहुत अच्छा लगा. उस समझ को आने में काफी वक़्त लग जाता है. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteकि कामनाओं के असीम आकाश से
ReplyDeleteअनुकूल सितारे चुन लेना ही
होता है
बड़ा काम
...बहुत सटीक चिंतन...बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना...
आये दिन इस बड़ा काम से मिलना होता ही है। सुंदर कहा है।
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