Monday, January 27, 2014

ठोकरें खा के.....

रेत से हेत मेरा मैं तो सँभल जाऊँगी
तपते सहरा से भी बेख़ौफ़ निकल जाऊँगी 

ये भी होगा जो मिला धूप का बस इक टुकड़ा
शब-ए-ग़म तेरी सियाही को बदल जाऊँगी

खेतों की कच्ची मुँडेरों  पे कभी बारिश में
संग तितली के बहुत दूर निकल जाऊँगी

कब तलक दिल को मनाऊं ये दिलासा देकर
"ठोकरें खा के मुहब्बत में सँभल जाऊँगी"

पुरकशिश है तेरी कोशिश तो मगर बेजा ही
क्यूँ तेरे तयशुदा साँचे में मैं ढल जाऊँगी

गुनगुनाती ये हवा चाँदनी ओढ़े पत्ते
क्यूँ लगे है कि तेरी याद में जल जाऊँगी

प्यास को फिर मेरी तू देगा समन्दर जानूँ
दिल्लगी पर तेरी हँसकर मैं निकल जाऊँगी

जो खुलेआम कहा करते हैं जिद्दी मुझको
वो भी तो फेंकते दाने कि फिसल जाऊँगी

आग के दरिया भी गुजरे हैं मुझे छूकर पर
मैं नहीं मोम की गुडिया जो पिघल जाऊँगी 


*****

तरही मिसरा आदरणीय साहिर लुधियानवीं साहब की ग़ज़ल से 
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन  (बहरे रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ)

"ठोकरें खा के मुहब्बत में सँभल जाऊँगा "

11 comments:

  1. जो खुलेआम कहा करते हैं जिद्दी मुझको
    वो भी तो फेंकते दाने कि फिसल जाऊँगी

    बहुत बढ़िया ...... सशक्त भाव लिए पंक्तियाँ

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  2. बहुत खुबसूरत गज़ल..

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  3. वाह....
    बहुत बढ़िया...
    दाद कबूल कीजिये..

    अनु

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  4. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।

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  5. आग के दरिया भी गुजरे हैं मुझे छूकर पर
    मैं नहीं मोम की गुडिया जो पिघल जाऊँगी
    ....वाह...बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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  6. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

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  7. यही जीवटता ही तो जीवन को समझने का अवसर देता है. अति सुन्दर सृजन.

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  8. खेतों की कच्ची मुँडेरों पे कभी बारिश में
    संग तितली के बहुत दूर निकल जाऊँगी ..

    बहुत इ सदा .. ताजगी भरा शेर ... लाजवाब गज़ल है ...

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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