वज्न
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पैरवी मेरी कर न पाई चोट
पास रहकर रही पराई चोट
फलसफ़े अनगिनत सिखा देगी
अस्ल में करती रहनुमाई चोट
महके चन्दन घिसें जो सिल पर तो
रोता कब है कि मैनें खाई चोट
सब्र का ही मिला सिला हमको
सहते रहकर मिली सवाई चोट
तन्हा ढ़ोता है दर्द हर इंसाँ
क्यूँ तू रिश्ते बढ़ा न पाई चोट
रस्म केवल मिज़ाजपुर्सी भी
'जानता कौन है पराई चोट'
उठ ही पाये न देख ही पाये
मुस्कुराई कि खिलखिलाई चोट
***
तरही मिसरा आदरणीय फ़ानी बदायुनी साहब की ग़ज़ल से
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (12-01-2014) को वो 18 किमी का सफर...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1490
में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ...पीड़ा साझा कौन करता है ? बेहतरीन पंक्तियाँ हैं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteशानदार,सुंदर गजल ...!
ReplyDeleteRECENT POST -: कुसुम-काय कामिनी दृगों में,
utam
ReplyDeleteलाजवाब गज़ल एक कठिन बहर पे ... हर शेर कमाल कर रहा है ...
ReplyDeleteउम्दा!उम्दा!उम्दा!
ReplyDeletebehad umda...
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