कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज
डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज
तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज
ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप
कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज
जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ
वो ही काँधे को झुकाए बन के रह जाते मिराज
हम भला बढ़ते ही कैसे आड़े आती है ये सोच
"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज"
खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज
पंछियों के खेल या फिर तितलियों का बाँकपन
मौज से गर देख पाऊं सुधरे शायद ये मिज़ाज
तरही मिसरा "माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज" आदरणीय शायर अल्लामा इक़बाल साहब की ग़ज़ल से है |
एक से बढ़कर एक..... बहुत सुंदर ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल.....
ReplyDeleteआपकी शायरी के हुनर के तो कायल हैं हम....
अनु
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल
सुन्दर ग़ज़ल |
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ग़ज़ल एक से बढ़ कर एक सुंदर...
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल. मतला और मक़ता ख़ास पसंद आया.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteखीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
ReplyDeleteमैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज
...वाह..सभी अशआर बहुत उम्दा...बेहतरीन ग़ज़ल...
खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
ReplyDeleteमैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज ..
वाह .. क्या बात है इस लाजवाब शेर की ... नया आग्रह छुपा है एक शेर में ...
वाह ! कमाल का लिखा है..
ReplyDeleteप्रस्तुति प्रशमसनीय है। मेरे नरे नए पोस्ट सपनों की भी उम्र होती है, पर आपका इंजार रहेगा। धन्यवाद।
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ReplyDeleteतीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
ReplyDeleteकर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज
यथार्थ की यथावत किंतु सुंदर अभिव्यक्ति।
bahut sundar !!
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