खोज रहा क्या मन बंजारे
सुधियों की लेकर पतवारें
नए घड़े के पानी सी
नेह भीगी माटी की गंध
गाँव मुहल्ले गली गली
रिश्तों के बंधन निर्द्वंद्व
पलक पलक प्रगाढ़ प्रतीक्षा
द्वार सजी सी बंदन वारे
खोज रहा क्या मन बंजारे !
वृक्षों पर लौटे यौवन
नन्हीं नन्हीं कोंपल संग
पतझड़ बीते आये फागुन
गूंज रहे धमाल और चंग
रेत पे छिटकी जैसे बूंदें
गुजरी हुई वसंत बहारें
खोज रहा क्या मन बंजारे !
सुबह सवेरे सजी आरती
शंख घंटियों की आवाजें
गुरुबानी के संग संग ही
सुर मिला रही पवित्र अजाने
मंगल भावों से पगी हवाएं
सांसों में अमृत के डेरे
खोज रहा क्या मन बंजारे !
नन्हे बच्चों की बातों में
मिल जाये गुलाबों की नरमी
हम तुम फिर महसूस कर सकें
जुड़ते हाथ दर हाथ की गर्मी
आओ !हम कोशिश करके ढूंढें
दबे राख में कुछ अंगारें
खोज रहा क्या मन बंजारे !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Monday, June 28, 2010
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इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं
बहुत अच्छी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता.
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