छुई मुई सी सिमटूं
या कि खुशबू बन बिखरूं
समझ नहीं आता
कैसे मैं जियूं
पंछियों सी उडू
जब जी चाहे उतरूँ चढ़ूँ
या पतंग की डोर
दूसरों को सौंप दूँ
कि शाखों में उलझूं
तो झटक कर
तोड़ ले वो डोर
और मैं
अंतिम साँस तक
चीर चीर होते हुए
मृत्यु की प्रतीक्षा करूँ
जी तो चाहे बारिश में
भीगे पत्तों सी
इठलाऊं हंसूं
चुटकी भर धूप सुख की
नयन बदरिया संग
मन के उजले भावों से
इन्द्रधनुष बुनूं
क्यों न नदी बनूँ
उम्र भर बहते रहकर
अनंत अथाह को हो समर्पित
बूंदों का रूप धर
नवजीवन चुनूँ !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Sunday, June 20, 2010
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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर