अपनी ज़रूरतें कांट छाँट
जिसने ज़िन्दगी को सिया है
हलक से बाहर न आने पाए
अरमानों को पिया है
उस माँ की स्नेहिल छाया से
क्रमशः दूर
और दूर होते
ऊँचाइयों पर बढ़ते
उसके लाडलों ने
हवाओं को
कमरे में
कैद कर लिया है
बौनी ज़रूरतों को ढूंढती
इच्छाएं बढती रही
भूसे के ढेर सी
उड़ा न दे कहीं कोई
साँसों को केप्सूल में
बंद कर लिया है
धरती का यह बेटा
सुविधाएँ जुटा रहा है
या सामान दर्द के बटोर रहा है
क्या जाने नादान
माँ की उंगली छोड़
कब बैसाखियों को थाम लिया है ।
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
Labels
- . मां (5)
- कथा लघु -कथा (19)
- कविता (73)
- कह मुकरियाँ (1)
- क्षणिकाएं (1)
- ग़ज़ल/अगज़ल (59)
- चिंतन (5)
- छंद आधारित (2)
- दोहागीत (2)
- दोहे (7)
- नवगीत (1)
- मनन (2)
- मुक्तक /कता (1)
- लेख (8)
- वसंत (1)
- व्यंग्य (2)
- स्त्री विमर्श (27)
Friday, May 28, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Followers
कॉपी राईट
इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं
वंदना जी ..खेद है पर कुछ नहीं पढ़ पा रहा ,,,पोस्ट में शीर्षक के आलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा
ReplyDeleteपिछले रचनाएं अच्छी लगी
ReplyDeleteधरती का यह बेटा
ReplyDeleteसुविधाएँ जुटा रहा है
या सामान दर्द के बटोर रहा है
क्या जाने नादान
माँ की उंगली छोड़
कब बैसाखियों को थाम लिया है । ...waah sundar ....achhi kavita