Friday, May 28, 2010

प्रकृति और माँ

अपनी ज़रूरतें कांट छाँट
जिसने ज़िन्दगी को सिया है
हलक से बाहर न आने पाए
अरमानों को पिया है
उस माँ की स्नेहिल छाया से
क्रमशः दूर
और दूर होते
ऊँचाइयों पर बढ़ते
उसके लाडलों ने
हवाओं को
कमरे में
कैद कर लिया है
बौनी ज़रूरतों को ढूंढती
इच्छाएं बढती रही
भूसे के ढेर सी
उड़ा न दे कहीं कोई
साँसों को केप्सूल में
बंद कर लिया है
धरती का यह बेटा
सुविधाएँ जुटा रहा है
या सामान दर्द के बटोर रहा है
क्या जाने नादान
माँ की उंगली छोड़
कब बैसाखियों को थाम लिया है ।

3 comments:

  1. वंदना जी ..खेद है पर कुछ नहीं पढ़ पा रहा ,,,पोस्ट में शीर्षक के आलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा

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  2. पिछले रचनाएं अच्छी लगी

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  3. धरती का यह बेटा
    सुविधाएँ जुटा रहा है
    या सामान दर्द के बटोर रहा है
    क्या जाने नादान
    माँ की उंगली छोड़
    कब बैसाखियों को थाम लिया है । ...waah sundar ....achhi kavita

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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