स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Tuesday, May 4, 2010
माँ
माँ
तुझसे मेरी कथा शुरू है
माँ ओ माँ तू प्रथम गुरु है
नित्य अंगारों पर चली तू
कपूर हथेली पर जलाये
रचने को नवछंद ऋचा का
पीड़ा से मन मौन सजाये
मंत्रपूरित कवच सा मुझ पर
सदा शुभचिंतक कल्पतरु है
मैं एक बीज था पल्लव का
मजबूत शाख विस्तार दिया
दे पंख मेरे अरमानों को
नव क्षितिज नवल संसार दिया
मैं शाख तेरे व्यक्तित्व की
तू ही जीवनाधार तरु है
सूखे में आशा बादल सा
आशीष भरा तेरा आँचल
हाँ बांध खुद को बन्धनों में
दी मुझको आजादी पलपल
तू ही स्नेह तू वर्तिका भी
बिना तेरे तो जीवन मरू है
माँ ओ माँ तू प्रथम गुरु है
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इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं
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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर