Sunday, February 19, 2012

विंटेज कार



जिंदगी की इस रफ़्तार मे
कब हम विंटेज कार हो गए
ना जाने कब घर से निकले
गैरेज का सामान हो गए


जिनकी खातिर रातों जागे
वही सपने बेजार हो गए
कभी सेवा के संस्कार थे
रिश्ते अब इश्तिहार हो गये
बोली उनको सिखला दी तो
हम न बोलें  फरमान हो गए

जड़ जमने के संगी साथी
पीत पात  निराधार हो गए
घर के कोने में पहुँच चुके
बेदखली के आसार हो गये
दिल के जो सबसे करीब थे
असीम दर्द पहचान हो गए 

सभी चित्र :गूगल से साभार 

11 comments:

  1. जिनकी खातिर रातों जागे
    वही सपने बेजार हो गए
    कभी सेवा के संस्कार थे
    रिश्ते अब इश्तिहार हो गये
    बोली उनको सिखला दी तो
    न बोलो ये फरमान हो गए... bahut badhiya

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  2. बहुत सुंदर बिम्ब चुने .... सशक्त रचना

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  3. कविता का कथ्य कुछ नया-नया सा है।

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  4. जिंदगी की रफ़्तार जो न करवा दे ..
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  5. बोली उनको सिखला दी तो
    न बोलो ये फरमान हो गए..

    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति!

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... शिव रात्रि पर हार्दिक बधाई..

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  7. बहुत खूब! जीवन के यथार्थ का बहुत सटीक और मर्मस्पर्शी चित्रण...

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  8. सुन्दर प्रतीकों में दर्द की गाथा आह करने पर मजबूर कर रही है..बहुत ही सुन्दर लिखा है वन्दना जी...शुभकामनाएं..

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  9. बहुत सुन्दर लगी आपकी यह अभिव्यक्ति.
    शब्दों और भावों का कशिश पूर्ण संयोजन.
    आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईएगा,वंदना जी.
    'मेरी बात..' पर कुछ अपनी भी कहिएगा.

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  10. bahut hi sundar rachana ...abhar vandarna ji .

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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