जिंदगी की इस रफ़्तार मे
कब हम विंटेज कार हो गए
ना जाने कब घर से निकले
गैरेज का सामान हो गए
जिनकी खातिर रातों जागे
वही सपने बेजार हो गए
कभी सेवा के संस्कार थे
रिश्ते अब इश्तिहार हो गये
बोली उनको सिखला दी तो
हम न बोलें फरमान हो गए
जड़ जमने के संगी साथी
पीत पात निराधार हो गए
घर के कोने में पहुँच चुके
बेदखली के आसार हो गये
दिल के जो सबसे करीब थे
असीम दर्द पहचान हो गए
सभी चित्र :गूगल से साभार
जिनकी खातिर रातों जागे
ReplyDeleteवही सपने बेजार हो गए
कभी सेवा के संस्कार थे
रिश्ते अब इश्तिहार हो गये
बोली उनको सिखला दी तो
न बोलो ये फरमान हो गए... bahut badhiya
waah ......bahut badhiya.
ReplyDeleteबहुत सुंदर बिम्ब चुने .... सशक्त रचना
ReplyDeleteकविता का कथ्य कुछ नया-नया सा है।
ReplyDeleteजिंदगी की रफ़्तार जो न करवा दे ..
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
बोली उनको सिखला दी तो
ReplyDeleteन बोलो ये फरमान हो गए..
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... शिव रात्रि पर हार्दिक बधाई..
ReplyDeleteबहुत खूब! जीवन के यथार्थ का बहुत सटीक और मर्मस्पर्शी चित्रण...
ReplyDeleteसुन्दर प्रतीकों में दर्द की गाथा आह करने पर मजबूर कर रही है..बहुत ही सुन्दर लिखा है वन्दना जी...शुभकामनाएं..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लगी आपकी यह अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteशब्दों और भावों का कशिश पूर्ण संयोजन.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईएगा,वंदना जी.
'मेरी बात..' पर कुछ अपनी भी कहिएगा.
bahut hi sundar rachana ...abhar vandarna ji .
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