सुधियों में आज भी
मोती सा जड़ा है
प्रश्न ले झोली में
जमीर ही खड़ा है
गुलमोहर के फूल
और सिरस की गंध
बिसरे तेरे वादे
कुछ मेरे अनुबंध
यादों की गली में
बिखरा सब पड़ा है
धार में अँसुवन की
जो बह भी न पाया
बाते थी स्वजन की
जो कह भी न पाया
मन की कली कोमल
कांटा सा गडाहै
वह था तेरा अहम
या मेरा अभिमान
दरकता था दर्पण
या छूटा सम्मान
सोचते थे दोनों
जिद पे क्यों अडा है
वाह क्या बात है...एकदम से सहमत होने जैसा...
ReplyDeleteप्रश्न बनके जब जमीर खड़ा हो जाए
ReplyDeleteदिल का कांटा सहज ही निकल जाए
उम्दा भाव हैं।
सामंजस्य के वृहद् फलक को सुन्दर शब्दों व भावों में समेटती रचना अपने प्रवाह में बहा रही है ..अच्छा लिखती हैं आप..
ReplyDeletegudh abhivyakti
ReplyDeleteवंदना ! बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteसादर
कल 07/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
वाह! बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteउत्तम....सहजता से कहते मन के भाव....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteउत्तम रचना.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteमधुर गीत
ReplyDeleteBahut sundar :)
ReplyDeletepalchhin-aditya.blogspot.in
सुंदर गीत में कोमल भाव.
ReplyDeleteबधाई.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteगहन .... विचारणीय प्रश्न
ReplyDeleteवन्दना जी बहुत सुन्दर कविता बधाई |
ReplyDeleteशब्दों की जिद ने कविता को सुंदर बना दिया है।
ReplyDeleteSOFT AND SWEET STRAIGHT EXPRESSION
ReplyDeleteTHANKS