Tuesday, December 30, 2014

दिखने लगी बैचैनी अब नन्हीं बयाओं में

बारूद कहीं फैला लाज़िम ही फ़िज़ाओं में
दिखने लगी बैचैनी अब नन्हीं बयाओं में

जब कुछ न असर दिखता दुनिया की दवाओं में
मन ढूँढने लगता है दादी को खलाओं में

क्यूँ ढूंढते कमजोरी तुम उनकी अदाओं में
क्या जीने की सद-इच्छा दिखती न लताओं में

यायावरी की अल्हड इक ज़िद लिए बच्चे सी
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में"

रोशन जहाँ के हाकिम भरना तू मेरी झोली
हाँ नामशुमारी है अपनी भी गदाओं में

वो बाँटता था सुख दुःख सौ हाथ मदद लेकर
यूँ ही नहीं थी गिनती कान्हा की सखाओं में

उम्मीद मेरे दिल की है तुझसे ही तो कायम
साहस को नवाजेगा तू अपनी अताओं में 

तरही मिसरा "ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "शायर जनाब बशीर बद्र साहब  की ग़ज़ल से 

7 comments:

  1. उत्तम प्रस्तुति।

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  2. बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हुई है ..हर शेर नायाब...नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँ..

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  3. जब कुछ न असर दिखता दुनिया की दवाओं में
    मन ढूँढने लगता है दादी को खलाओं में

    लाजवाब शेर हैं यह, ग़ज़ल बहुत पसंद आई.

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  4. जब कुछ न असर दिखता दुनिया की दवाओं में
    मन ढूँढने लगता है दादी को खलाओं में
    हर शेर लाजवाब ... और ये शेर तो ख़ास लगा ...
    नव वर्ष की मंगल कामनाएं ...

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  5. बहूत सुन्दर प्रस्तुति...

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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