ख़्वाब सहलाती इक कहानी थी
रात सिरहाने मेरी नानी थी
रंज ही था न शादमानी थी
"कुछ अजब तौर की कहानी थी"
वो जो दिखती हैं रेत पर लहरें
था जुदा फलसफा तेरा शायद
मुख्तलिफ़ मेरी तर्जुमानी थी
ये बची राख ये धुआं पूछे
जीस्त क्या सिर्फ राएगानी थी
कट गया नीम नीड़ भी उजड़े
भींत आँगन में जो उठानी थी
अब गुमाँ टूटा आखिरी दम पर
चिड़िया तो सच ही बेमकानी थी
तरही मिसरा . "कुछ अजब तौर की कहानी थी"....आदरणीय मीर तकी मीर साहब के क़लाम से
ख्वाब सहलाती इक कहानी थी
ReplyDeleteरात सिरहाने मेरी नानी थी
था जुदा फलसफा तेरा शायद
मुख्तलिफ़ मेरी तर्जुमानी थी
वाह, बहुत ख़ूब....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-12-2014) को "FDI की जरुरत भारत को नही है" (चर्चा-1821) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर ग़ज़ल बनी है.
ReplyDeleteथा जुदा फलसफा तेरा शायद
ReplyDeleteमुख्तलिफ़ मेरी तर्जुमानी थी ..
वाह लाजवाब शेर इस ग़ज़ल का ... और गिरह भी कमाल की लगाईं है आपने ...
कमाल की पंक्तियाँ हैं ..... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमीर तकी मीर साहब की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
ReplyDeleteरचना मीर साहब की नहीं है बस एक पंक्ति "कुछ अजब तौर ...." उनकी है उसे आधार बना कर मेरे द्वारा ग़ज़ल लिखी गयी है इसे तरही ग़ज़ल कहते हैं
Deleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteये बची राख ये धुआं पूछे
ReplyDeleteजीस्त क्या सिर्फ राएगानी थी
ख़ूबसूरत ग़ज़ल, सुंदर अंदाज़ !
. बहुत सुन्दर रचना।
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