चोट जब संजीवनी होने लगी
जिंदगी बहती नदी होने लगी
त्याग कर फिर धारती नवपत्र है
फाग सुरभित मंजरी होने लगी
पल थमा कब ठौर किसके लो चला
रिक्त मेरी अंजली होने लगी
साजिश-ए-बाज़ार है अब चेतिए
तितलियों में बतकही होने लगी
मैं मसीहा तो नहीं हूँ जो कहूँ
"हर नए गम से ख़ुशी होने लगी"
डूबता सूरज भी पूछे अब किसे
शिष्टता क्यूँ मौसमी होने लगी
मन बिंधा घायल हुआ तो क्या हुआ
बाँस थी मैं बाँसुरी होने लगी
"हर नए गम से ख़ुशी होने लगी"
चोट जब संजीवनी होने लगी
ReplyDeleteजिंदगी बहती नदी होने लगी
क्या बात .... बहुत उम्दा लिखा है ....
बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : पंचतंत्र बनाम ईसप की कथाएँ
नई पोस्ट : स्वप्न सुनहरे
चोट जब संजीवनी होने लगी
ReplyDeleteजिंदगी बहती नदी होने लगी...
वाह ! बहुत ही सुंदर सृजन...!
RECENT POST - पुरानी होली.
बहुत खुब !
ReplyDeleteसमय के साथ संवाद करती आपकी यह प्रस्तुित काफी सराहनीय है। मेरे नए पोस्ट DREAMS ALSO HAVE LIFE पर आपके सुझावों की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteक्या नहीँ ये पंक्तियाँ कुछ बोलती हैँ?
ReplyDeleteभेद मन के रोज तो ये
खोलती हैँ.......बहुत सुंदर कविता..अभार।
बहुत खूबसूरत गज़ल.....!! हर शेर लाजवाब... बहुत बहुत बधाई..!
ReplyDeleteबहुत खूब ... इस लाजवाब गज़ल के सभी शेर कमाल के हैं ...
ReplyDeleteमन बिंधा घायल हुआ तो क्या हुआ
ReplyDeleteबाँस थी मैं बाँसुरी होने लगी
...वाह..बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
अति सुन्दर ।
ReplyDeleteअहा! बांसुरी की कितनी मधुर तान है .. सुन्दर लिखा है..
ReplyDeleteजिंदगी बहती नदी होने लगी.….
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति , बधाई !!
बहुत गहन और बहुत सुंदर लिखा है ...एक एक शब्द हृदयस्पर्शी ....
ReplyDeleteबहुत खूब, क्या बात है...
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