जिस्मो जाँ अब अदालती हो क्या
साँस दर साँस पैरवी हो क्या
क्यूँ उदासी का अक्स दिखता है
ये बताओ कि आरसी हो क्या
थरथराते हैं लब जो रह-रहकर
कुछ खरी सी या अनकही हो क्या
रतजगों की कथाएं कहती हो
चांदनी तुम मेरी सखी हो क्या
शाम का रंग क्यूँ ये कहता है
"मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या"
मैं जरा खुल के कोई बात कहूँ
पूछे हर कोई मानिनी हो क्या
माँ से विरसे में ही मिली हो जो
ए नमी आँखों की वही हो क्या
तरही मिसरा आदरणीय शायर जॉन एलिया साहब की ग़ज़ल से
" मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या "
रतजगों की कथाएं कहती हो
ReplyDeleteचांदनी तुम मेरी सखी हो क्या...
बहुत सुन्दर ...!
RECENT POST - माँ, ( 200 वीं पोस्ट, )
बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : हंसती है चांदनी
बहुत ही लाजवाब शेर हैं इस गज़ल में ... मज़ा आया बहुत पढ़ के ...
ReplyDeleteमाँ से विरसे में ही मिली हो जो
ReplyDeleteए नमी आँखों की वही हो क्या
अब तक अव्यक्त रही इन पंक्तियों में कितना मर्म है ...!
क्यूँ उदासी का अक्स दिखता है ,सच कहो आरसी हो क्या ..बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteलाजवाब शेर.. बहुत सुन्दर गजल..
ReplyDeleteवाह, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल, हर शेर लाजबाब….ढेर सारी दाद कबूल फरमाएं...
ReplyDeleteबढ़िया व बेहतरीन गज़ल , आदरणीय वंदना जी धन्यवाद !
ReplyDeleteनवीन प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ त्याग में आनंद ~ ) - { Inspiring stories part - 4 }
बहुत उम्दा अशआर...लाज़वाब ग़ज़ल...
ReplyDeleteवाह , बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteउम्दा ..लाजवाब... बेहतरीन.. और भी बहुत कुछ..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आकर अपने सुझाव दे !
वाह... लाजवाब रचना...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@भजन-जय जय जय हे दुर्गे देवी
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteशानदार रचना
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल. मेरे बाल एलिया साब के जैसे हैं नहीं, लेकिन मैंने उनकी अंदाज़ में ही झूम के पढ़ा.
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