हकीकत है कि जो मुस्का रहा हूँ
रफू कर जख्म को सिलता रहा हूँ
हताहत हो के रह जा श्राप मुझको
कि सर दीवार से टकरा रहा हूँ
सभी शामिल रहे उस कारवां में
बिकाऊ भीड़ का हिस्सा रहा हूँ
दबे पांवों चला यादों का मेला
कुसुम राहों में खुद बिखरा रहा हूँ
लगा चुकने न हो अब नेह साथी
नमी आँखों की फिर सहला रहा हूँ
गुलाबों चाँद में दिखता है हर सू
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ
हवाओं पर लगे पहरे भले हों
पतंगें थाम कर इठला रहा हूँ
राहों में खुद ही कुसुम बिखराना ...वाह!
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना..
ReplyDeletevery nice ....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना..
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बढिया
वाह!!!बहुत खूब सुंदर गजल ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: तेरी याद आ गई ...
बहुत बढ़िया गज़ल हुई है.
ReplyDeleteबढिया मतला है.. बिकाऊ भीड़ का हिस्सा.., नमी आँखों की फिर सहला रहा हूँ.. जबदस्त मिसरे.
बधाई.
बेहद सुन्दर ग़ज़ल !
ReplyDeletelatest post हमारे नेताजी
latest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल....
ReplyDeleteसुख की हवा बंद हो तब भी सामाजिक दायित्व की पतंगों को लहराना पडता है । प्यारी गज़ला ।
ReplyDeleteस्तरीय और प्रभावशाली ..
ReplyDeleteबधाई !
बहुत खूब ... अच्छे शेर बन रहें हैं अब आपके ... बहुत ही लाजवाब भाव ...
ReplyDeleteआपके शेरो से दिल बहला रहा हूँ ,अति सुन्दर
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