Thursday, November 20, 2014

बंधन

(1)

छटपटाकर निकली
घूंघट
और
बुर्केनुमा
कोकून से बाहर
अब खुश हैं
हाथों पर दस्ताने
और चेहरे पर
स्कार्फ लपेटे
तितलियाँ

(2)

उन्हें भी
कहाँ सुकून देते हैं
ये तराशे हुए बगीचे
फिर-फिर 
बुलाते हैं
बेतरतीब फैले जंगल
जंगल पर खुला आसमान
लेकिन लौटकर दुबक रहीं हैं
चिड़ियाएँ
बाज के पैंतरे देखकर



चित्र गूगल से साभार 

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (22-11-2014) को "अभिलाषा-कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा" (चर्चा मंच 1805) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. खूबसूरत एहसास कराती क्षणिकाएं |

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  3. बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण क्षणिकाएं !
    आईना !

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  4. तितलियों से जुड़े कई मासूम अहसास पुनः ताजा हो गये। सुंदर प्रस्तुति।

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  5. बहुत ही अर्थपूर्ण हैं दोनों क्षणिकाएं ... गहरा अर्थ लिए ...

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  6. बहुत सुन्दर , विचारपूर्ण भाव हैं

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  7. खूबसूरत पंक्तियाँ, अर्थपूर्ण क्षणिकाएं...बधाई

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  8. वाह....!
    भावना की सीपी में
    शब्दों के मोती
    चमक रहे हों, जैसे !

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  9. बहुत ही खूबसूरत .....

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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