Wednesday, February 5, 2014

सदका माँगे या खिराज....

कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज
डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज

तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज

ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप
कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज
  
जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ
वो ही काँधे को झुकाए बन के रह जाते मिराज

हम भला बढ़ते ही कैसे आड़े आती है ये सोच  
"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज"

खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज

पंछियों के खेल या फिर तितलियों का बाँकपन
मौज से गर देख पाऊं सुधरे शायद ये मिज़ाज  



तरही मिसरा "माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज" आदरणीय शायर अल्लामा इक़बाल साहब की ग़ज़ल से है |

15 comments:

  1. एक से बढ़कर एक..... बहुत सुंदर ....

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  2. बहुत बढ़िया ग़ज़ल.....
    आपकी शायरी के हुनर के तो कायल हैं हम....

    अनु

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  3. बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल

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  4. बहुत ही सुंदर ग़ज़ल एक से बढ़ कर एक सुंदर...

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  5. सुन्दर ग़ज़ल. मतला और मक़ता ख़ास पसंद आया.

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  6. बहुत बढ़िया ग़ज़ल

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  7. बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  8. खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
    मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज
    ...वाह..सभी अशआर बहुत उम्दा...बेहतरीन ग़ज़ल...

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  9. खीचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे
    मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज ..

    वाह .. क्या बात है इस लाजवाब शेर की ... नया आग्रह छुपा है एक शेर में ...

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  10. वाह ! कमाल का लिखा है..

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  11. प्रस्तुति प्रशमसनीय है। मेरे नरे नए पोस्ट सपनों की भी उम्र होती है, पर आपका इंजार रहेगा। धन्यवाद।

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  12. This comment has been removed by the author.

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  13. तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
    कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज

    यथार्थ की यथावत किंतु सुंदर अभिव्यक्ति।

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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