सिकुड़े गलियारे सहन
ऊँची मन दहलीज
गलती माली की रही कैसे बोये बीज
पूर्वाग्रह तो
छोडिये मिलिए निज बिसराय
धरिय डली मुख नून की स्वाद
मधुर कस पाय
अनुशासित होकर रहे उड़े पतंग अकास
भागी फिरे कुरंग सम डोर पिया के पास
कब तक परछाई चले पूछ
न कितनी दूर
धूप चढ़े सिर बावरी
छाया थक कर चूर
शापित मानव कर्म से
धरा रो रही आज
चील झपट के खेल के
बदले ना अंदाज़
बाहर आकर मिल गया
पीड़ा से निस्तार
निज मन था सिमटा हुआ
बढ़ा सकल संसार
फिर कहीं गिरा नीम या
बरगद छायादार
यूँ गाँव को निगल
गया शहरों का विस्तार
चाँद सगुन है चौथ का मनें चाँद से ईद
सांझेअपने देश में सांझी अपनी दीद
-वंदना
चाँद सगुन है चौथ का मनें चाँद से ईद
सांझेअपने देश में सांझी अपनी दीद
-वंदना
बहुत ही सुन्दर बेहतरीन प्रस्तुती,धन्यबाद।
ReplyDeleteअति सुन्दर दोहे.
ReplyDeleteसार्थक दोहे ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर, अर्थपूर्ण दोहे रचे हैं ... शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन और सार्थक ।
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत अर्थपूर्ण रचना!!
ReplyDeleteमहानगर ने फैंक दी मौसम की संदूक ,
ReplyDeleteपेड़ परिंदों से हुआ कितना बुरा सुलूक।
बहुत सुन्दर दोहावली पढवाई आपने सार्थक हमारे वक्त से संवाद करती पर्यावरण के प्रति खबरदार करती।
बहुत ही सुन्दर चुटीले दोहे ... अपनी बात को मजबूती से रखते हुए ...
ReplyDeleteकब तक परछार्इं चले, पूछ न कितनी दूर,
ReplyDeleteधूप चढ़ी सिर बावरी, छाया थक कर चूर।
दोहों में काव्य का सम्पूर्ण सौंदर्य झलक रहा है।
सार्थक एवं सुन्दर दोहे हैं.. पढ़कर अच्छा लगा..
ReplyDeleteवन्दना जी दोहे अच्छे हैं । चूँकि यह एक सुपरिचित मात्रिक छन्द है इसलिये मात्राओं की गडबडी अखरती है ।
ReplyDeleteआदरणीय गिरिजा जी बहुत बहुत आभार ध्यान दिलाने के लिए कम्प्यूटर पर पहले से टाइप किया हुआ था संशोधन जोड़े बिना ब्लॉग पर डाल दिया था इसी से गलती हुई अब सुधार दिया है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...
ReplyDeletewaah ....dohon mein bhi mahir hain aap ....
ReplyDeleteachha abhinav imroz patrikaa baal visheshaank nikaal rahe hain aap apni baal kavitayein bhej sakti hain whaan .....
बहुत ही बेहतरीन
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