Wednesday, March 21, 2012

आत्मबल इतना ...



देख कर हवाओं की
मुखालफत
पंछियों के पर 
खुलने लगे थे
अनछुई ऊँचाइयों को
छूने का संकल्प
मन की गागर में
आलोड़ित होते होते
बन चुका था 
एक ज्वार
तिनकों के घोंसले
अब परों को ना बाँध पाएँगे
पुकारता है 
सुनहरा रश्मि पुंज
अँधेरों को ठेलते हुए
कर लेनी है मुट्ठी में  
अपने हिस्से की रोशनी
और भर लेनी है डैनों में
इतनी शक्ति
कि कोई ब्लैक होल
निगल न सके 
हौसलों को

और यह
मात्र गर्जना से संभव नहीं
भरनी होगी
स्वार्थहीन
और आडम्बर से रहित
एक उड़ान
बना देना होगा
एक रास्ता
आसमान तक
पीढ़ियों के 
अनुगमन के लिये
चाहिए आत्मबल इतना 
कि
लडखडाएं साँसें
तो 
पथ विचलित न कर दे
लुभावने 
आश्वासनों की
शापित बैसाखी कोई


18 comments:

  1. बेहतरीन कविता

    सादर

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  2. वाह! बहुत ही प्रेरक...

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  3. आत्मबल से ही अनछुई ऊँचाइयों को पल में भी छू लिया जाता है . प्रेरित करती हुई अद्भुत प्रवाह में बहाती हुई अति सुन्दर रचना..

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  4. आपको नव संवत्सर 2069 की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।

    ----------------------------
    कल 24/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. बहुत सुंदर सशक्त रचना..

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  6. kar leni hai apni mutthi mein,
    apne hisse ki roshni...
    bahut sundar, prerana deti rachna

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  7. आज अंधेरों से अपने हिस्से की रोशनी छीन लेने का ही वक़्त है...

    सुन्दर रचना...
    सादर.

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  8. बहुत सुन्दर...बेहद प्रेरक...

    लाजवाब ...

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  9. बहुत ही प्रेरक और सशक्त प्रस्तुति...

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  10. जब स्वयं पर विश्वास हो ...और लक्ष्य पर नज़र ....तो कुछ भी असंभव नहीं ...प्रेरणादायक रचना !

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  11. प्रेरणादायक रचना के लिए आभार ... !!

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  12. ब्लैक होल का बिम्ब के रूप में सुंदर प्रयोग।

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  13. भावों का कोमल प्रवाह...बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति..बधाई!

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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