शब्द -नाद का बोध नहीं
मैं कविता कैसे रच पाऊँगी
ताल सुरों का ज्ञान नहीं
मैं गीत भला क्या गाऊँगी
क्षितिज पार पहुंचे बिन कैसे
इन्द्रधनुष छू पाऊँगी
खिले फूल भ्रमरों के जैसा
गुंजन कैसे कर पाऊँगी
जी चाहे खुशियाँ हर घर -आँगन बांटू
छोटे से आँचल में सबके अश्रु समेटूं
हो जाए जब अंत सकल उत्पीडन का
खुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का !
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Wednesday, August 4, 2010
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इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं
हो जाये जब अंत सकल उत्पीडन का
ReplyDeleteखुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का !
sundar bhav badhai
बहुत उम्दा!
ReplyDeletesuperb,it is very heart touching
ReplyDeleteहुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
ReplyDeleteउत्तम विमल सु-भाष तिमिर का अंत करे...
दीपक लिये मशाल
प्रभाती पुनः सुना रे.
कुशंकाओं-बाधा का
देखें शीश कटा रे..
मुकुलित रहे मनोज, सृजन का पंथ वरे.
हुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
*
वंदना जी!
आपका आभार कि आपने मुझे सचेत किया. भविष्य में देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में देने का प्रयास होगा. मेरी असावधानी से आपको हुई असुविधा हेतु खेद है.
खुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का ~ आप ने नव आशा का संचार बतलाया है , शुक्रिया
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