Wednesday, August 4, 2010

चाह

शब्द -नाद का बोध नहीं
मैं कविता कैसे रच पाऊँगी
ताल सुरों का ज्ञान नहीं
मैं गीत भला क्या गाऊँगी
क्षितिज पार पहुंचे बिन कैसे
इन्द्रधनुष छू पाऊँगी
खिले फूल भ्रमरों के जैसा
गुंजन कैसे कर पाऊँगी
जी चाहे खुशियाँ हर घर -आँगन बांटू
छोटे से आँचल में सबके अश्रु समेटूं
हो जाए जब अंत सकल उत्पीडन का
खुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का !

5 comments:

  1. हो जाये जब अंत सकल उत्पीडन का
    खुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का !
    sundar bhav badhai

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  2. हुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
    उत्तम विमल सु-भाष तिमिर का अंत करे...

    दीपक लिये मशाल
    प्रभाती पुनः सुना रे.
    कुशंकाओं-बाधा का
    देखें शीश कटा रे..

    मुकुलित रहे मनोज, सृजन का पंथ वरे.
    हुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
    *
    वंदना जी!
    आपका आभार कि आपने मुझे सचेत किया. भविष्य में देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में देने का प्रयास होगा. मेरी असावधानी से आपको हुई असुविधा हेतु खेद है.

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  3. खुद मर मिट कर अंश बनूँ नवजीवन का ~ आप ने नव आशा का संचार बतलाया है , शुक्रिया

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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