रोजगार की तलाश में घूमते घुमक्कड़ लोगों के अस्थाई से डेरे इस बार भी
विद्यालय की सीमा के आसपास दिखाई दिए, तो कुछ सहकर्मियों ने उन डेरों के बच्चों को
स्कूल से जोड़ने का उपक्रम किया | उन बच्चों के रहन सहन तौर-तरीकों को लेकर कुछ लोग
असहज भी थे लेकिन धीरे-धीरे नियमित आने वाले बच्चों के स्वभाव और तौर-तरीकों में
परिवर्तन लाने में शिक्षकवृंद सफल भी हुआ |
इन्हीं बच्चों में से एक बच्चा जो अपनी सात वर्षीय उम्र से कुछ ज्यादा
ही समझदार दिखाई देता है अक्सर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने मेरे पास आ ही जाता है |
मात्र दो माह में पढ़ाई में भी उसका अच्छा प्रदर्शन देखने को मिला है |
प्रारंभ के एक माह सभी बच्चों को एक साथ बैठाकर केवल बातचीत,व्यवहार व
सफाई की आदतों को सिखाया जा रहा था | फिर सीखने के लेवल और आयु के आधार पर अलग-अलग
बैठाने लगे तो वह बच्चा अपनी नन्हीं बहन को , जो दूसरे कक्ष में बैठती थी हर
कालांश में उसे सँभालने जाता | शाम को घर जाते वक़्त अपनी बहन सहित दूसरे छोटे
बच्चों को भी डांट-डपट कर सड़क के किनारे चलने को कहता | कभी आने में देर हो जाए तो
कारण बताने भी जरूर आता ये सब बातें उसकी जिम्मेदारी भरी समझ को बताती है |
अक्सर अपनी प्रगति की जानकारी देने वो आ ही जाता है | इसी क्रम में दो
दिन पहले वो एक सवाल लेकर मेरे पास आया मेरा ध्यान उसके सवाल पर नहीं था और मैं
उसके सवाल तक पहुँचूँ इससे पहले उसने बड़ी मासूमियत से पूछा “आपको नहीं आता ?”
मैंने ना में गर्दन हिला दी | कुछ दयापूर्ण दृष्टि से देखते हुए उसने अपने सहज
अभिभावकीय अंदाज में कहा “कोई बात नहीं मैं सर से पूछ लूँगा |”
सरलता से कहा गया उसका यह वाक्य कितनी तरलता से भरा था मैं शब्दों में
व्यक्त नहीं कर सकती | एक तरफ खिल्ली उड़ाने का बहाना ढूंढते तथाकथित बुद्धिजीवी और
एक तरफ बालमन की यह सहज स्वीकार्यता , कि आप जैसे हैं वैसे अच्छे हैं आप कुछ जानते
हैं, तो ठीक , नहीं जानते तो भी ठीक ....|
उसका अभिभावकीय संरक्षण जो अपनी
छोटी बहन के प्रति है बिलकुल वही अपनी अध्यापिका की तरफ भी |
वो तरलता वो सरलता जो सहज स्वभाव के रूप में उसकी पूँजी है क्या किसी
विश्वविद्यालय की डिग्री किसी को दिला सकती है ? वो सुन्दर भाव जो अभावों में उसे
उपलब्ध है वो भौतिक साधनों की उपलब्धता में कहीं दब जाते हैं | अभावों के जीवन से उपार्जित यह विलक्षण
भाव चिरंजीवी हो यही प्रार्थना है !!!
सहज केवल बाल्यावस्था ही होती है ...
ReplyDeleteबड़े होते जाते हैं हम और चालाकियां दिल में भरते जाते हैं ...
आभार आदरणीय मयंक सर
ReplyDeleteसुन्दर प्रयास ।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति,बालमन की बाल-सुलभ मासुमियत ... यकीनन वो
ReplyDeleteनन्हा अभिभावक अपनी जिम्मेदारी समझता था... अच्छा लिखा आपने।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteतभी तो बचपन को खूबसूरत समय कहा गया है
ReplyDeleteमासूम मन
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
बहुत सुंदर लिखा है। ऐसी छोटी छोटी घटनाएँ मन को प्रभावित कर जाती हैं क्योंकि चिंतन करने पर उनसे कोई बड़ा संदेश मिल जाता है...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअभावों कि ये दुनिया निर्मल भावों से भरी होती है | अंतस में करुणा का संचार करता बहुत ही प्रभावी आलेख | बधाई --------- |
ReplyDeletebahut bahut abhar aadarniyaa Pammi ji
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