ग़ज़ल
मेरे लिए बहार का मौसम रवां है अब
काँधे हवा के रख दिया अपना मकां है अब
परवाज़ नापती परों को तौलती फिरे
पलकों पे लड़कियों के ठहरा आसमां हैअब
खामोश लब झुकीं रहीं नज़रें तेरी सदा
तालीम इक दुआ रही खुद पर गुमां है अब
बिंदास तेवरों की तेरे ताब कुछ अलग
जो बदगुमां हुआ था कभी हमजुबां है अब
उन्वान हम पुराने बदल देंगे जोश है
लिखनी उफ़क पे हमको नई दास्तां है अब
रक्खे चिराग़ हैं सभी आँचल की ओट में
जाकर हवा से कह दो इरादे अयां है अब
छाले मिले तो हमने सहेजे सजा लिए
वो आसमान देखो खिली कहकशां है अब
नाज़ुक ख़याल थी कभी तितली हसीन थी
जो धूप में तपी तो बनी सायबां है अब
टिकना बुलंदियों पे न आसां हुआ कभी
तौफ़ीक़ जर्फ़ का तू मगर तर्जुमां है अब
-वंदना सीकर
( उन्वान- शीर्षक ; अयां-स्पष्ट ; कहकशां- सितारों का समूह /गैलेक्सी ; सायबां -छाया देने वाला; तर्जुमां-अनुवादक; जर्फ़ -हैसियत
मेरे लिए बहार का मौसम रवां है अब
काँधे हवा के रख दिया अपना मकां है अब
परवाज़ नापती परों को तौलती फिरे
पलकों पे लड़कियों के ठहरा आसमां हैअब
खामोश लब झुकीं रहीं नज़रें तेरी सदा
तालीम इक दुआ रही खुद पर गुमां है अब
बिंदास तेवरों की तेरे ताब कुछ अलग
जो बदगुमां हुआ था कभी हमजुबां है अब
उन्वान हम पुराने बदल देंगे जोश है
लिखनी उफ़क पे हमको नई दास्तां है अब
रक्खे चिराग़ हैं सभी आँचल की ओट में
जाकर हवा से कह दो इरादे अयां है अब
छाले मिले तो हमने सहेजे सजा लिए
वो आसमान देखो खिली कहकशां है अब
नाज़ुक ख़याल थी कभी तितली हसीन थी
जो धूप में तपी तो बनी सायबां है अब
टिकना बुलंदियों पे न आसां हुआ कभी
तौफ़ीक़ जर्फ़ का तू मगर तर्जुमां है अब
-वंदना सीकर
( उन्वान- शीर्षक ; अयां-स्पष्ट ; कहकशां- सितारों का समूह /गैलेक्सी ; सायबां -छाया देने वाला; तर्जुमां-अनुवादक; जर्फ़ -हैसियत
सुन्दर ग़ज़ल.
ReplyDeleteभावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत ग़ज़ल !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ग़ज़ल !!
ReplyDeleteवन्दना जी !आप के ब्लोग पर एक लिंक "अर्थ खोजें"
क्या आप इसका URL हमें दे सकती हैं प्लीज ?
मेरा ब्लॉग लिंक है
http://vichar-anubhuti.blogspot.in
नई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteरोचक ....
बहुत सुंदर गजल.
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल.
ReplyDeleteवन्दना जी एक बार फिर आपकों परेसान कर रहा हूँ| बात यह है कि आपका दिया हुआ URL को लेआउट में जाकर ऐड गजेट के थ्रू इंस्टाल किया परन्तु शब्दकोष नहीं खुल रहां है | कृपया बताएं कैसे इंस्टाल करें ताकि शब्द कोष खुले जैसे आपके ब्लॉग में खुलते हैं !
ReplyDeleteसादर !
कालीपद "प्रसाद"
बहुत बहुत आभार वन्दना जी .इंस्टाल हो गया |
ReplyDeleteबहुत बढ़िया गज़ल , व प्रस्तुति , धन्यवाद
ReplyDeleteनया प्रकाशन --: प्रश्न ? उत्तर -- भाग - ६
आदरणीया वंदना जी आपकी इस ग़ज़ल की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है ..बेहतरीन चुनिन्दा शब्दों के कारण मैंने इसे कई बार पढ़ा ..आपके ब्लॉग पर उदरु शब्दकोष है क्या मैं इसे अपने ब्लॉग पर जोड़ सकता हूँ ..आपको ढेर सारी बधाई के साथ ..सादर
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब गज़ल ... हर शेर चुनिन्दा ... कहाँ की मजबूती कमाल की है ... मज़ा आया पूरी गज़ल पढ़ने के बाद ...
ReplyDeleteलाज़वाब...हरेक शेर बहुत उम्दा..खूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteवाह! बढ़िया कलम चला रही हैं गजल पर.. लिखते रहिये..शुभकामनाएं..
ReplyDeleteमेरे लिए बहार का मौसम रवां है अब
ReplyDeleteकाँधे हवा के रख दिया अपना मकां है अब।
परवाज़ नापती परों को तौलती फिरे
बेफ़िक्र आसमां में उड़े लड़कियां हैं अब।
बहुत अच्छी ग़ज़ल।
भावों की गहनता ध्यान आकर्षित करती है।