प्रकृति का वह
स्वरूप जो भारत के उत्तरी प्रदेश में देखने को मिला वाकई भयावह है आत्मा को झकझोर
गया सम्पूर्ण मंजर साथ ही याद आई प्रसाद जी की कामायनी शतपथ ब्राह्मण पर आधारित महाकाव्य
की ये पंक्तियां –
हिमगिरि के उत्तुंग
शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष भीगे नयनों
से देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था ऊपर हिम
था एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही
प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन
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निकल रही थी मर्म
वेदना करुणाविकल कहानी सी वहां अकेली प्रकृति सुन रही हँसतीसी पहचानी सी
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उनको देख कौन रोया
यों अन्तरिक्ष में बैठ अधीर
वयस्त बरसने लगा
अश्रुमय यह प्रलय हलाहल नीर
हाहाकार हुआ
क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर
हुए दिगंत बधिर भीषण
रव बार बार होता था क्रूर
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भारतीय दर्शन ने
मनुष्य को सदैव संतुलित जीवन जीने का सन्देश दिया है लेकिन हम दर्शन को छोड़कर दूरदर्शन
के पीछे भाग रहे हैं जो निरंतर विलासिता के पीछे पागल होने पर जोर दे रहा है
टी.वी पर उत्तराखंड
के दृश्य दिखाते समय बार बार प्रकृति से किये जा रहे खिलवाड़ की बात दोहराई जा रही
थी टिहरी बाँध पर सवाल उठाये जा रहे थे लेकिन सोचिये कि टिहरी बाँध की जरूरत क्यों
पड़ी ?सभी जानते हैं कि नदियों पर बाँध सिंचाई अथवा ऊर्जा उत्पादन के लिए बनाये
जाते हैं. सिंचाई के अभाव में अन्न उत्पादन कैसे हो? निरंतर बढती जनसँख्या को अन्न
उपलब्ध करवाने का अन्य उपाय क्या है? रही बात ऊर्जा उत्पादन की तो कुछ घंटे बिजली
के अभाव में हमारी क्या हालत हो जाती है यह किसी से छिपा नहीं है ऑफिस घर बाज़ार
सभी जगह बढ़ते बिजली उपकरण निरंतर ऊर्जा की मांग करते हैं और ऊर्जा प्राप्ति का
जरिया है प्रकृति एकमात्र प्रकृति
टी.वी. पर शोर मचा
रहे इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इनके पास ऊर्जा के क्या स्रोत हैं कैसे ये
24*7 अपने कार्यक्रमों को प्रसारित कर पाते हैं क्या इनके पास कोई निजी संसाधन हैं
ऊर्जा प्राप्ति के ?यदि नहीं तो जरा आकलन करके बताइये कि सारे दिन में वास्तव में
कितने आवश्यक एवं उपयोगी कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं और कुल कितनी ऊर्जा
इसमें खर्च होती है
कहने को तो आप कहते
कि इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं फलां फलां विज्ञापन लेकिन वास्तव में विज्ञापनों
को इन कार्यक्रमों एवं समाचारों के द्वारा प्रायोजित किया जाता है
ऊर्जा केवल टी.वी.
प्रसारण में ही खर्च नहीं होती कार्यक्रमों को तैयार करने से लेकर दर्शकों के
देखने के लिए काम आ रहे उपकरणों तक करोड़ों यूनिट बिजली प्रयोग में आती है एक
समाचार का विस्तार देखने के लिए हम घंटों टी.वी. पर नजरें गडाए रहते हैं और
विस्तार के बजाय हाथ आती हैं वे क्लिपिंग्स जिन्हें घिस जाने की हद तक बार बार
प्रसारित किया जाता है
क्या बुराई थी कि हम
आकाशवाणी पर 15 मिनट के समाचार सुन कर जानकारी हासिल कर लेते थे और अब घंटों बैठकर
भी उतनी जानकारी नहीं जुटा पाते आकाशवाणी
पर सरकारी तोता होने का इल्जाम था और अब हम देसी विदेशी रंगीन तोतों की टांय टांय
सुनने को विवश हैं
अगर वास्तव में
प्रकृति की चिंता है तो महात्मा गाँधी जी की इस उक्ति को ध्यान में रखना होगा –
Earth provides enough to satisfy every
man’s need but not every man’s greed .
तो आइये बंद करें
बिना जरूरत चल रहे पंखे कूलर ,ऊंघते कम्प्यूटर और अलसाई लाइटें जहाँ तक हो सके ऊर्जा बचाएं . थोड़ी सहन शक्ति बढ़ाएं और उस गर्मी को
सहन करने के बारे में सोचें जिसे हम बिना ac कूलर बर्दाश्त नहीं कर पाते पर सैकड़ों
लोग उसी तपती गर्मी में आजीविका के लिए पूरा दिन खड़े रहते हैं
बड़ी लालसा यहाँ सुयश
की
अपराधों की स्वीकृति
बनती
अंध प्रेरणा से
परिचालित
कर्ता में करते निज
गिनती
तो.... या तो हम
प्रकृति के दोस्त बन जाएँ या प्रकृति का तांडव देखने को तैयार रहें
प्रकृति रही दुर्जेय
पराजित
हम सब थे भूले मद
में
भोले थे हाँ तिरते
केवल
सब विलासिता के नद
में
jivn ka astitav bachane ke liye hamen sochna hi hoga ......prerak rachna ...
ReplyDeleteaaah waaah umdah haiN .....bahut khoob
ReplyDeleteइंसान का प्रकृति के साथ खिलवाड़ हद से ज्यादा हो गया ,बहुत कुछ सोचने पे विवश करती सार्थक रचना
ReplyDeleteअभी तक आत्मा उस झझकोरे को महसूस कर रही है.. उफ़...
ReplyDeleteपता नहीं पर अपने देश में कुछ ज्यादा ही रफ़्तार है आगे बढ़ने की ... और व्यक्तिगत स्तर पे भी ये रफ़्तार बनी हुई है ... इसके चलते संवेदनहीनता भी खत्म हो रही है ... संतुलित तो हम कबसे नहीं हैं ... पुरातन इतिहास में लौना होगा .... सहज और सादा जेवण इस विचार को प्रेरित करना होगा ...
ReplyDeleteबहुत ही विचारोत्तेजक आलेख...काश हम यह कर पायें..
ReplyDeleteअनुकरणीय संदेश।
ReplyDeleteटी.वी. कई समस्याओं का मूल है।
सही कह रही है वंदना जी टीवी तो सनसनी फैलाने के लिये है.
ReplyDeleteविचारोत्तेजक आलेख.