मुस्कुरा किसे देखे बालियाँ समझती हैं
लाज के हैं क्या माने कनखियाँ समझती हैं
रंग की हिफ़ाज़त में क्यूँ न घर रहा जाए
बारिशों की साजिश को तितलियाँ समझती हैं
शूल ये नहीं साहब सिर्फ है सजगता बस
‘ फूल कौन तोड़ेगा डालियाँ समझती हैं '
सिसकियाँ सुने बेबस कटते मूक पेड़ों की
दाम क्या तरक्की का आरियाँ समझती हैं
हौसलों की तक़रीरें सर्द पड़ ही जाएँ जब
खून की रवानी को धमनियाँ समझती हैं
पत्थरों को सहकर भी फल हुलस के बांटेंगी
नन्हें मन की चाहत को बेरियाँ समझती हैं
सुबह इक नयी होगी इक नया सा युग होगा
ओस की प्रतीक्षा को रश्मियाँ समझती हैं
( तरही मिसरा आदरणीय शायर जनाब दानिश अलीगढ़ी साहब की ग़ज़ल से )
एक व्यापक फलक समेटे हुए शानदार गज़ल है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर। आख़िरी पंक्तियाँ ज़बरदस्त हैं
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार 13 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल....
ReplyDeleteपत्थरों को सहकर भी फल हुलस के बांटेंगी
नन्हें मन की चाहत को बेरियाँ समझती हैं
कमाल के शेर कहे हैं...
अनु
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है वन्दना जी...हर एक शेर बेहतरीन है.
ReplyDeleteविशेषकर आपके ये दो शे'र
सिसकियाँ सुने बेबस कटते मूक पेड़ों की
दाम क्या तरक्की का आरियाँ समझती हैं
पत्थरों को सहकर भी फल हुलस के बांटेंगी
नन्हें मन की चाहत को बेरियाँ समझती हैं
तो कमाल के हैं...दिली मुबारकबाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-06-2014) को "थोड़ी तो रौनक़ आए" (चर्चा मंच-1642) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल....
ReplyDeleteक्या बात है। बेहतरीन ग़ज़ल।
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल वंदना जी. ऐसा लग रहा है कि तरही मिसरा दानिश साहब की ग़ज़ल "दो जवाँ दिलों का ग़म दूरियाँ समझती है"... से है. उसे हुसैन बंधुओं ने गाया भी बहुत अच्छा है.
ReplyDeleteउर्दू और हिंदी का मेल भी अच्छा लगा.
जी निहार जी सही पहचाना आपने ...दानिश साहब की यह ग़ज़ल और उस पर हुसैन बंधुओं की पुरकशिश गायकी कमाल है खासकर सीढियां समझती है वाला मिसरा तो गज़ब है
Deleteसहमत हूँ आपसे उस शेर के बारे में. यह शेर इस बात का नमूना भी है कि सही शब्दों के प्रयोग से भावों की खूबसूरती और बढ़ जाती है. मुझे लगता है कि 'बाम' और दोशीज़ा' के बदले उसके समानार्थी शब्द प्रयोग किये जाएँ तो शेर के खूबसूरती पर असर जरूर पड़ेगा. सैर-ऐ गुलशन वाला शेर भी बहुत प्यारा है.
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ReplyDeleteसिसकियाँ सुने बेबस कटते मूक पेड़ों की
ReplyDeleteदाम क्या तरक्की का आरियाँ समझती हैं..
बहुत ही गहरी बात इस शेर के माध्यम से कही है आपने ... बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल ...
सिसकियाँ सुने बेबस कटते मूक पेड़ों की
ReplyDeleteदाम क्या तरक्की का आरियाँ समझती हैं
वाह,
बहुत ही गहरी बात ।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल , मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteमुकर्रर
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...
ReplyDeleteवंदना जी! बहुत खूब कहती हैं आप:
ReplyDeleteयह अशआर मेरी पसंद के
हौसलों की तक़रीरें सर्द पड़ ही जाएँ जब
खून की रवानी को धमनियाँ समझती हैं
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सुबह इक नयी होगी इक नया सा युग होगा
ओस की प्रतीक्षा को रश्मियाँ समझती हैं
पत्थरों को सहकर भी फल हुलस के बांटेंगी
ReplyDeleteनन्हें मन की चाहत को बेरियाँ समझती हैं
कमाल के शेर कहे हैं...