Sunday, December 11, 2011

कल्पना बनाम यथार्थ



नहीं छलती कल्पना उतना
जितना यथार्थ ने छला है
जो सामने है
वही एक सच है
यह दिखलाने की कला में
न जाने कितनी बार
मासूम एक सपना जला है
वो वैरभाव किस कोख में पनपा
और दुर्विनीत
बिन माँ के बच्चे सा पला है
श्रद्धा की गोद में
जिसे खेलना था
प्यार के काँधे पर बैठकर
मेला देखना था
तृष्णा और स्वार्थ की
 देहरी पर
याचक सा खड़ा है
जो नया करना जानते हैं
मानते हैं सपनो की नींव को
उन्हें
पृथ्वी की परिधि के बाहर
अंतरिक्ष में जाने को
कल्प हंस की पाँखों पर
बैठने का
हौसला जुटाना ही पड़ा है 

13 comments:

  1. कल्पना बनाम यथार्थ का एक सच प्रस्तुत करती कविता।

    सादर

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति|

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  3. कल्पना और यथार्थ का खुबसूरत संगम.....

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  4. सशक्त सार्थक रचना....
    सादर...

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  5. बेहद ख़ूबसूरत रचना.......

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति...

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  7. बेहद सार्थक सुंदर रचना,.....बढ़िया पोस्ट

    मेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
    सपने में कभी न सोचा था,जन नेता ऐसा होता है
    चुन कर भेजो संसद में, कुर्सी में बैठ कर सोता है,
    जनता की बदहाली का, इनको कोई ज्ञान नहीं
    ये चलते फिरते मुर्दे है, इन्हें राष्ट्र का मान नहीं,

    पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे

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  8. कलपना को
    यथार्थ तक ले जाने का
    सफल प्रयास ...
    प्रभावशाली प्रस्तुति .

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  9. बहुत सुंदर ...प्रभावित कराती है रचना

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  10. यथार्थ ही सबसे ज्यादा छलिया होता है.कल्पना तो हमेशा ही सुन्दर होती है.
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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  11. हौसला से ही उड़ान है ..

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  12. कल्पनाओं के नशे में डूब करके,
    वास्तविकता की ये पीड़ा भूलते है।
    वास्तविकता ने हमें जड़वत किया है।
    कल्पना झूले में ये हम झूलते हैं।
    कल्पना और यथार्थ का सटाक चित्रण।
    बधाई......

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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