Sunday, November 20, 2011

मन की विकलांगता


पुष्प

जीते हैं उल्लास से

अपनी क्षणभंगुरता को

नहीं जानते जीना है कितना

फिर भी बांटते हैं

रंग की उमंग को

गंध के गौरव को

क्यूँ नहीं जी पाते

हम भी

यूँ ही

क्षणजीवी होने का बोध

बटोरते हैं आवश्यक अनावश्यक सामान

शायद जानते ही नहीं

अपने रंग को

पहचानते ही नहीं

स्वयं की गंध को

जुटाते हैं मंगल उत्सवों पर

परिचितों की

अपरिचित सी भीड़

पोषित करते अपने दंभ को

ढूंढते हैं निरंतर बैसाखियाँ

किन्तु निस्सहाय ही रहती है

सम्पूर्ण जीवन

मन की विकलांगता........

14 comments:

  1. hmmmmm
    sochne par majboor karti rachna

    hum sab ke mann kitne viklang hain

    abhaar

    naaz

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  2. मन की विकलांगता........बहुत सुन्दर सच है मन लंगड़ा ही तो बना देता है |

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  3. बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं ...

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  4. मन का दुरुस्त होना तो बहुत जरूरी है !

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  5. सही बात है,
    मन की विकलांगता लाइलाज है।

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  6. बहुत बहुत सार्थक रचना...
    सादर...

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  7. सुदर , कड़वा सच को खूबसूरती से बताया है आपने.अच्छी लगी.

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  8. सार्थक रचना...
    shubhkamnaayen...

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  9. सच में मन की विकलांगता का कोई इलाज़ नहीं..बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

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  10. mn ki viklangta aur pagli dono rachnayen bahut achhi lagin .

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  11. वंदना जी
    बहुत ही सुन्दर और जीवन से भरी हुई कविता .. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ और बहुत खुशी हुई है ..

    बधाई !!
    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html

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  12. परिचितों की अपरिचित सी भीड़

    बात सलीके से कह गई हैं आप। आप का ई मेल आय डी नहीं है मेरे पास pl send a test mail

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  13. बहुत ही बढ़िया।


    सादर

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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