Tuesday, May 17, 2011

जिजीविषा हो तुम

धरा हो तुम
धैर्य का प्रतीक
सहती रहो
सूर्य की तपिश
एक संघर्ष
एक चुनौती
कोण बदलकर
स्वीकार तुम करती रहो
हो सकेगा तभी
अंकुरित पल्लवित जीवन
व्यर्थ तो नहीं
तुम्हारे द्वारा सूर्य की परिक्रमा
निरंतर अपनी धुरी पर
बनके तकली घूमना
जिजीविषा हो तुम
जीती रहो
नवीन सूत के तार से
जिंदगी बुनती रहो !

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर चित्रण्।

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  2. तभी तो नारी को भी धरती की संज्ञा दी जाती है ..वो भी अपनी धुरी पर घूमती रहती ही सब सहते हुए ... बहुत अच्छी रचना

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  3. ...शानदार प्रस्तुति

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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