नव पल अभिनन्दन
हे ! नव पल तेरा अभिनन्दन
बन प्रेमदूत तुम आना रे
हो सर्व एकमय एक सर्व
सद्भाव पुण्य भर जाना रे
यह तृषित धरा सा व्याकुल मन
प्रांजल प्रवाह धन निर्झर बन
दो रोम रोम पुलकन धड़कन
आनंद मगन घन छाना रे
हर पंख उमंग उड़ान भरे
पर निज मर्यादा भान रहे
माँ तुल्य धरा नित ध्यान धरे
कज्जल अज्ञान मिटाना रे
निज वंदन ही निज अलं करण
भुला जन मानस प्रियं करण
बन मीत सखा तू शुभं करण
मन तन्मय अलख जगाना रे
खिले अल्पना आँगन आँगन
सज रहे द्वार तोरण तोरण
आनंद शकुन नर्तन गायन
तुम स्वजन सुधि प्रिय लाना रे
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Wednesday, July 22, 2009
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इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं
बहुत सुन्दर भाव और सुन्दर शिल्प ..
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत भाव हैं.
ReplyDeleteसादर