नहीं छलती कल्पना उतना
जितना यथार्थ ने छला है
जो सामने है
वही एक सच है
यह दिखलाने की कला में
न जाने कितनी बार
मासूम एक सपना जला है
वो वैरभाव किस कोख में पनपा
और दुर्विनीत
बिन माँ के बच्चे सा पला है
श्रद्धा की गोद में
जिसे खेलना था
प्यार के काँधे पर बैठकर
मेला देखना था
तृष्णा और स्वार्थ की
देहरी पर
याचक सा खड़ा है
जो नया करना जानते हैं
मानते हैं सपनो की नींव को
उन्हें
पृथ्वी की परिधि के बाहर
अंतरिक्ष में जाने को
कल्प हंस की पाँखों पर
बैठने का
हौसला जुटाना ही पड़ा है
कल्पना बनाम यथार्थ का एक सच प्रस्तुत करती कविता।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति|
ReplyDeletebahut sundar behtreen prastuti.
ReplyDeleteकल्पना और यथार्थ का खुबसूरत संगम.....
ReplyDeleteसशक्त सार्थक रचना....
ReplyDeleteसादर...
बेहद ख़ूबसूरत रचना.......
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteबेहद सार्थक सुंदर रचना,.....बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
सपने में कभी न सोचा था,जन नेता ऐसा होता है
चुन कर भेजो संसद में, कुर्सी में बैठ कर सोता है,
जनता की बदहाली का, इनको कोई ज्ञान नहीं
ये चलते फिरते मुर्दे है, इन्हें राष्ट्र का मान नहीं,
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
कलपना को
ReplyDeleteयथार्थ तक ले जाने का
सफल प्रयास ...
प्रभावशाली प्रस्तुति .
बहुत सुंदर ...प्रभावित कराती है रचना
ReplyDeleteयथार्थ ही सबसे ज्यादा छलिया होता है.कल्पना तो हमेशा ही सुन्दर होती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है.
हौसला से ही उड़ान है ..
ReplyDeleteकल्पनाओं के नशे में डूब करके,
ReplyDeleteवास्तविकता की ये पीड़ा भूलते है।
वास्तविकता ने हमें जड़वत किया है।
कल्पना झूले में ये हम झूलते हैं।
कल्पना और यथार्थ का सटाक चित्रण।
बधाई......