पुष्प
जीते हैं उल्लास से
अपनी क्षणभंगुरता को
नहीं जानते जीना है कितना
फिर भी बांटते हैं
रंग की उमंग को
गंध के गौरव को
क्यूँ नहीं जी पाते
हम भी
यूँ ही
क्षणजीवी होने का बोध
बटोरते हैं आवश्यक अनावश्यक सामान
शायद जानते ही नहीं
अपने रंग को
पहचानते ही नहीं
स्वयं की गंध को
जुटाते हैं मंगल उत्सवों पर
परिचितों की
अपरिचित सी भीड़
पोषित करते अपने दंभ को
ढूंढते हैं निरंतर बैसाखियाँ
किन्तु निस्सहाय ही रहती है
सम्पूर्ण जीवन
मन की विकलांगता........
hmmmmm
ReplyDeletesochne par majboor karti rachna
hum sab ke mann kitne viklang hain
abhaar
naaz
मन की विकलांगता........बहुत सुन्दर सच है मन लंगड़ा ही तो बना देता है |
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं ...
ReplyDeleteमन का दुरुस्त होना तो बहुत जरूरी है !
ReplyDeleteसही बात है,
ReplyDeleteमन की विकलांगता लाइलाज है।
बहुत बहुत सार्थक रचना...
ReplyDeleteसादर...
सुदर , कड़वा सच को खूबसूरती से बताया है आपने.अच्छी लगी.
ReplyDeletebhaut hi prabhaavi rachna....
ReplyDeleteसार्थक रचना...
ReplyDeleteshubhkamnaayen...
सच में मन की विकलांगता का कोई इलाज़ नहीं..बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
ReplyDeletemn ki viklangta aur pagli dono rachnayen bahut achhi lagin .
ReplyDeleteवंदना जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और जीवन से भरी हुई कविता .. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ और बहुत खुशी हुई है ..
बधाई !!
आभार
विजय
-----------
कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
परिचितों की अपरिचित सी भीड़
ReplyDeleteबात सलीके से कह गई हैं आप। आप का ई मेल आय डी नहीं है मेरे पास pl send a test mail
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर